मुजफ्फरपुर, देवरिया...बस नाम और स्थान बदल गया, लेकिन कहानी एक ही है, मानवता और संवेदना को ताक पर रखकर शोषण और अपराध को अंजाम देती इन घटनाओं पर भी हमारे देश के संचालक बयानबाजी करने से बाज नहीं आ रहे हैं। सुप्रीम कोर्ट भले ही एक साल में रेप के 38,947 मामलों को लेकर स्तब्ध है। कोर्ट ने बिहार मामले पर सुनवाई के दौरान सरकार से नाराजगी जताते हुए कहा, “इतनी बड़ी घटना हो जाती है और सरकार देर से जागती है। आप 2004 से फंड दिए जा रहे हैं, लेकिन आपको पता ही नहीं वहां क्या हो रहा है। लग रहा है, जैसे ये सब राज्य प्रायोजित गतिविधियां हैं।” सुप्रीम कोर्ट ने केंद्र सरकार से भी पूछा कि देशभर के शेल्टर होम में नाबालिगों को यौन उत्पीड़न से बचाने के लिए क्या कदम उठाए जा रहे हैं।
कोर्ट की सख्त टिप्पणी पर गम्भीर या शर्मिंदा होने की जगह सरकार उत्तर प्रदेश में तुरन्त कार्यवाही की बात कह वाहवाही लूटने को प्रयासरत दिखी। सवाल तो उठता है कि समाज कल्याण और गैर-सरकारी संगठन के नाम पर जब सरकार इस तरह के संगठनों को आर्थिक मदद मुहैया कराती है, तो इनकी निगरानी करना क्या उसकी जिम्मेदारी नहीं बनती? इन घटनाओं के बाद केंद्रीय महिला और बाल कल्याण मंत्री मेनका गांधी ने कहा कि ऐसी और भी बहुत सारी जगहें निकलेंगी; हम सालों से इन आश्रय स्थलों को पैसा देते रहे, लेकिन इस ओर ध्यान नहीं दिया।
सवाल यह भी उठता है कि क्या सरकारी महकमों की ओर से ऐसी लापरवाही सालों से इसलिए की जाती रही, क्योंकि मुजफ्फरपुर या देवरिया जैसी जगहों के आश्रय स्थलों में शरण लेने वाली बच्चियां या महिलाएं बेहद लाचार या फिर कमजोर पृष्ठभूमि से आती हैं? सच तो यह है कि ऐसे मामलों में कठघरे में सिर्फ शासन-प्रशासन को ही खड़ा नहीं करना चाहिए, बल्कि समाज भी ऐसी घटनाओं के लिए समान रूप से जिम्मेदार है। इन आश्रय गृहों के आसपास रहने वालों ने भी इस ओर से आँखें बन्द रखी। शासन-प्रशासन-समाज सबके आंखें मूंदे रहने का परिणाम यह है कि देश में 15 साल के अंदर बच्चों के मामलों में किए गए अपराध 889 प्रतिशत तक बढ़ गए। वर्ष 2001 में राष्ट्रीय आंकड़ों
में बच्चों के विरुद्ध अपराधों के 10,814 मामले दर्ज हुए थे, जो वर्ष 2016 तक बढ़कर 1,06,958 तक पहुंच गए।
सच यह है कि ऐसे मामलों के सामने आते ही पहले तो सत्ता-विपक्ष में जमकर आरोप-प्रत्यारोप का दौर चलता है, फिर सरकार कानून को और मजबूत कर अपने कर्तव्य की इतिश्री कर लेती है। कानून से कितना फर्क पड़ता है यह भी समझने के लिए मध्य प्रदेश का उदाहरण काफी है, जहां मध्य प्रदेश में सबसे पहले 12 साल तक की बच्चियों के साथ अपराधों के मामलों में फांसी की सजा का प्रावधान किया गया, लेकिन इसके बाद भी मध्य प्रदेश बलात्कार के मामले में देश में नंबर एक पर बना हुआ है। समय-समय पर मंदसौर जैसे कांड यहां सामने आते रहते हैं। स्थिति यह है कि अपराध के आंकड़े बढ़ते जाते हैं, लेकिन सजा मिलने की गति काफी धीमी है। नेशनल क्राइम रिकॉर्ड ब्यूरो के अनुसार साल 2012, 2013 और 2014 में देश के भीतर बच्चों (18 साल से कम आयु वाले) के साथ बलात्कार के क्रमश: 8,541, 12,363 और 13,766 मामले दर्ज हुए थे, लेकिन सज़ा के आंकड़े बताते हैं कि 2012 में 1,447, 2013 में 2,062 और 2014 में 2,015 आरोपियों का दोष सिद्ध किया जा सका। यानी बच्चों के खिलाफ हुए अपराध और आरोप सिद्ध होने में बड़ा अंतर है।
कुल मिलाकर, बलात्कार के मामलों और बच्चों के खिलाफ बढ़ते अपराध से निपटने के लिए शासन-प्रशासन को सख्त होना पड़ेगा और अपने क्षेत्र में मौजूद शेल्टर होम पर लगातार नजर बनाए रखना होगा। हालांकि, कठिनाई यह भी है कि जब सरकार में शामिल लोग ही इस तरह की घटनाओं में शामिल हों तो आश्रय गृहों को संरक्षण कैसे और कौन देगा! यहां गौर करने लायक बात यह भी है कि समस्या का समाधान चाहिए तो समाज को भी ऐसे मामलों में अपने आँख-कान खोले रखना होगा।
■ संपादकीय
कोर्ट की सख्त टिप्पणी पर गम्भीर या शर्मिंदा होने की जगह सरकार उत्तर प्रदेश में तुरन्त कार्यवाही की बात कह वाहवाही लूटने को प्रयासरत दिखी। सवाल तो उठता है कि समाज कल्याण और गैर-सरकारी संगठन के नाम पर जब सरकार इस तरह के संगठनों को आर्थिक मदद मुहैया कराती है, तो इनकी निगरानी करना क्या उसकी जिम्मेदारी नहीं बनती? इन घटनाओं के बाद केंद्रीय महिला और बाल कल्याण मंत्री मेनका गांधी ने कहा कि ऐसी और भी बहुत सारी जगहें निकलेंगी; हम सालों से इन आश्रय स्थलों को पैसा देते रहे, लेकिन इस ओर ध्यान नहीं दिया।
सवाल यह भी उठता है कि क्या सरकारी महकमों की ओर से ऐसी लापरवाही सालों से इसलिए की जाती रही, क्योंकि मुजफ्फरपुर या देवरिया जैसी जगहों के आश्रय स्थलों में शरण लेने वाली बच्चियां या महिलाएं बेहद लाचार या फिर कमजोर पृष्ठभूमि से आती हैं? सच तो यह है कि ऐसे मामलों में कठघरे में सिर्फ शासन-प्रशासन को ही खड़ा नहीं करना चाहिए, बल्कि समाज भी ऐसी घटनाओं के लिए समान रूप से जिम्मेदार है। इन आश्रय गृहों के आसपास रहने वालों ने भी इस ओर से आँखें बन्द रखी। शासन-प्रशासन-समाज सबके आंखें मूंदे रहने का परिणाम यह है कि देश में 15 साल के अंदर बच्चों के मामलों में किए गए अपराध 889 प्रतिशत तक बढ़ गए। वर्ष 2001 में राष्ट्रीय आंकड़ों
में बच्चों के विरुद्ध अपराधों के 10,814 मामले दर्ज हुए थे, जो वर्ष 2016 तक बढ़कर 1,06,958 तक पहुंच गए।
सच यह है कि ऐसे मामलों के सामने आते ही पहले तो सत्ता-विपक्ष में जमकर आरोप-प्रत्यारोप का दौर चलता है, फिर सरकार कानून को और मजबूत कर अपने कर्तव्य की इतिश्री कर लेती है। कानून से कितना फर्क पड़ता है यह भी समझने के लिए मध्य प्रदेश का उदाहरण काफी है, जहां मध्य प्रदेश में सबसे पहले 12 साल तक की बच्चियों के साथ अपराधों के मामलों में फांसी की सजा का प्रावधान किया गया, लेकिन इसके बाद भी मध्य प्रदेश बलात्कार के मामले में देश में नंबर एक पर बना हुआ है। समय-समय पर मंदसौर जैसे कांड यहां सामने आते रहते हैं। स्थिति यह है कि अपराध के आंकड़े बढ़ते जाते हैं, लेकिन सजा मिलने की गति काफी धीमी है। नेशनल क्राइम रिकॉर्ड ब्यूरो के अनुसार साल 2012, 2013 और 2014 में देश के भीतर बच्चों (18 साल से कम आयु वाले) के साथ बलात्कार के क्रमश: 8,541, 12,363 और 13,766 मामले दर्ज हुए थे, लेकिन सज़ा के आंकड़े बताते हैं कि 2012 में 1,447, 2013 में 2,062 और 2014 में 2,015 आरोपियों का दोष सिद्ध किया जा सका। यानी बच्चों के खिलाफ हुए अपराध और आरोप सिद्ध होने में बड़ा अंतर है।
कुल मिलाकर, बलात्कार के मामलों और बच्चों के खिलाफ बढ़ते अपराध से निपटने के लिए शासन-प्रशासन को सख्त होना पड़ेगा और अपने क्षेत्र में मौजूद शेल्टर होम पर लगातार नजर बनाए रखना होगा। हालांकि, कठिनाई यह भी है कि जब सरकार में शामिल लोग ही इस तरह की घटनाओं में शामिल हों तो आश्रय गृहों को संरक्षण कैसे और कौन देगा! यहां गौर करने लायक बात यह भी है कि समस्या का समाधान चाहिए तो समाज को भी ऐसे मामलों में अपने आँख-कान खोले रखना होगा।
■ संपादकीय
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