वर्चुअल दुनिया में खोये हम, दूर-दराज के रिश्तों का तानाबाना बुनने में कई बार अपने आसपास मौजूद अपनों को अनजाने ही अनदेखा कर देते हैं। इस कॉलम का मकसद है आपके-हमारे इन्हीं रिश्तों-जिम्मेदारियों का अहसास कराना...
घर-आंगन के हर कोने में रची-बसी, जिम्मेदारियों की थकान को स्निग्ध मुस्कान के परदों में छुपाए वह हमारे आसपास हर पल रहती है, लेकिन हम उसकी ओर यदा-कदा ही ध्यान दे पाते हैं। हां, मैं ‛मां’ की ही बात कर रहा हूं। यहां चर्चा इसलिए की हाल-फिलहाल हुए एक वाकये ने कुछ पल मुझे भावुकता से लबरेज कर दिया और जेहन में मुनव्वर राना की पंक्ति मुस्कुराइ-
“लबों पे उसके कभी बद्दुआ नहीं होती,
बस एक माँ है जो मुझसे खफा नहीं होती।”
जुलाई की बात है। मैं गांव गया था और मुंबई लौटने की तैयारी थी। उसी बीच उसके प्यार की एक झलक मिली और मेरा दिल उसकी ममता का अहसानमंद होकर रह गया। मुझे अपने गांव जौनपुर से मुंबई वापस लौटना था। वाराणसी से मुंबई आने के लिए सुबह 10.15 बजे की ट्रेन थी। मेरे गांव से वाराणसी स्टेशन की दूरी बहुत ज्यादा तो नहीं, तकरीबन 80 किमी है। लेकिन गांव की खस्ताहाल सड़क, यातायात व्यवस्था की वजह से यह दूरी तय करने में चार से पांच घंटे का वक्त लग जाता है। इस हिसाब से मुझे घर से किसी भी हालत में सुबह 4.30 बजे तक निकलना ही था। बता दूं कि मेरे निकलने से ठीक एक दिन पहले सुबह 7 बजे से ही मां एक कार्यक्रम में गई हुई थी और रात 8 बजे वह वहां से घर लौटी। चेहरे के हावभाव से जाहिर था वे काफी थक चुकी है और उसे आराम की सख्त जरूरत है। भोर में निकलना था, सो मैंने भी रात को ही सफर का सामान कपड़े वगैरह पैक कर लिया था। थक के चूर होने के बावजूद मां ने मुझे सामान रखते देख कर बड़े प्यार से पूछा- सफर में खाने के लिए क्या लेकर जाना है, क्या बनाऊं? उसकी थकी हालत को देखकर मैंने गुस्से में कह दिया, कुछ बनाने की जरूरत नहीं है। रास्ते में खरीद कर खा लूंगा। इसके बावजूद मेरे लिए उसका मन नहीं माना और बड़ी मासूमियत से उसने तीन से चार बार और पूछ ही लिया कि क्या बनाऊं, भूख लगेगी तो रास्ते में क्या खाएगा? फिर मेरे ज्यादा नाराज होने के बाद उसने कुछ बोला नहीं। बस इतना कहा, “अच्छा ठीक है, कुछ नहीं बनाती हूं, रास्ते में खरीद कर खा लेना।”
इसके बाद मैं बाहर सोने चला गया। अलसुबह निकलने की चिंता में जैसे नींद भी पूरी नहीं हो सकी। भोर में करीब 4 बजे नींद खुली। हड़बड़ाया सा उठ फ्रेश होकर जब घर के भीतर गया, तो देखता हूं कि मां खाना बनाने में व्यस्त है। करीब-करीब वह खाना बना भी चुकी थी, वह भी कई वरायटी के। दो सब्जी, ऑमलेट, पूरी, चना फ्राई। कुछ देर को मैं बिल्कुल जम गया, एकदम शॉक्ड!! उसकी मासूमियत और प्यार को देखकर भावुक भी हो गया। मन में बस इतना ही कह सका तू भी ना....!!!
पता चला कि वह रात में दो बजे से ही उठकर खाना बनाने में लग गई थी। बस, इसलिए की उसे मेरी भूख की फिक्र थी। हमेशा की तरह कोशिश थी, मुझे खुश रखने की। वर्षों से उसके इस प्यार, मासूमियत और ईमानदारी ने मुझे उसका कर्जदार बना दिया है। पता नहीं कैसे चुकता कर पाऊंगा उसके कर्ज को। उसके लिए बस इतना ही कह सकता हूं, “तुझे सब है पता, है ना मां।” Love You Maa.
■ अखिलेश पाल
घर-आंगन के हर कोने में रची-बसी, जिम्मेदारियों की थकान को स्निग्ध मुस्कान के परदों में छुपाए वह हमारे आसपास हर पल रहती है, लेकिन हम उसकी ओर यदा-कदा ही ध्यान दे पाते हैं। हां, मैं ‛मां’ की ही बात कर रहा हूं। यहां चर्चा इसलिए की हाल-फिलहाल हुए एक वाकये ने कुछ पल मुझे भावुकता से लबरेज कर दिया और जेहन में मुनव्वर राना की पंक्ति मुस्कुराइ-
“लबों पे उसके कभी बद्दुआ नहीं होती,
बस एक माँ है जो मुझसे खफा नहीं होती।”
जुलाई की बात है। मैं गांव गया था और मुंबई लौटने की तैयारी थी। उसी बीच उसके प्यार की एक झलक मिली और मेरा दिल उसकी ममता का अहसानमंद होकर रह गया। मुझे अपने गांव जौनपुर से मुंबई वापस लौटना था। वाराणसी से मुंबई आने के लिए सुबह 10.15 बजे की ट्रेन थी। मेरे गांव से वाराणसी स्टेशन की दूरी बहुत ज्यादा तो नहीं, तकरीबन 80 किमी है। लेकिन गांव की खस्ताहाल सड़क, यातायात व्यवस्था की वजह से यह दूरी तय करने में चार से पांच घंटे का वक्त लग जाता है। इस हिसाब से मुझे घर से किसी भी हालत में सुबह 4.30 बजे तक निकलना ही था। बता दूं कि मेरे निकलने से ठीक एक दिन पहले सुबह 7 बजे से ही मां एक कार्यक्रम में गई हुई थी और रात 8 बजे वह वहां से घर लौटी। चेहरे के हावभाव से जाहिर था वे काफी थक चुकी है और उसे आराम की सख्त जरूरत है। भोर में निकलना था, सो मैंने भी रात को ही सफर का सामान कपड़े वगैरह पैक कर लिया था। थक के चूर होने के बावजूद मां ने मुझे सामान रखते देख कर बड़े प्यार से पूछा- सफर में खाने के लिए क्या लेकर जाना है, क्या बनाऊं? उसकी थकी हालत को देखकर मैंने गुस्से में कह दिया, कुछ बनाने की जरूरत नहीं है। रास्ते में खरीद कर खा लूंगा। इसके बावजूद मेरे लिए उसका मन नहीं माना और बड़ी मासूमियत से उसने तीन से चार बार और पूछ ही लिया कि क्या बनाऊं, भूख लगेगी तो रास्ते में क्या खाएगा? फिर मेरे ज्यादा नाराज होने के बाद उसने कुछ बोला नहीं। बस इतना कहा, “अच्छा ठीक है, कुछ नहीं बनाती हूं, रास्ते में खरीद कर खा लेना।”
इसके बाद मैं बाहर सोने चला गया। अलसुबह निकलने की चिंता में जैसे नींद भी पूरी नहीं हो सकी। भोर में करीब 4 बजे नींद खुली। हड़बड़ाया सा उठ फ्रेश होकर जब घर के भीतर गया, तो देखता हूं कि मां खाना बनाने में व्यस्त है। करीब-करीब वह खाना बना भी चुकी थी, वह भी कई वरायटी के। दो सब्जी, ऑमलेट, पूरी, चना फ्राई। कुछ देर को मैं बिल्कुल जम गया, एकदम शॉक्ड!! उसकी मासूमियत और प्यार को देखकर भावुक भी हो गया। मन में बस इतना ही कह सका तू भी ना....!!!
पता चला कि वह रात में दो बजे से ही उठकर खाना बनाने में लग गई थी। बस, इसलिए की उसे मेरी भूख की फिक्र थी। हमेशा की तरह कोशिश थी, मुझे खुश रखने की। वर्षों से उसके इस प्यार, मासूमियत और ईमानदारी ने मुझे उसका कर्जदार बना दिया है। पता नहीं कैसे चुकता कर पाऊंगा उसके कर्ज को। उसके लिए बस इतना ही कह सकता हूं, “तुझे सब है पता, है ना मां।” Love You Maa.
■ अखिलेश पाल



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