लुटता है तेरा बाग-ए-चमन खुसरो, लिख फिर से लफ्ज-ए-अमन खुसरो, इश्क तेरा सच्चा, सच्ची तेरी इबादत यही कमजर्फों को तुझसे जलन खुसरो, चंद अलफाज लिखकर बन गए शायर लाए कहां से शीरी-ए-शुखन खुसरो....
खड़ी बोली हिन्दी के प्रथम कवि अमीर खुसरो सूफीयाना कवि थे। इनका जन्म ईस्वी सन् 1253 में ऐटा जिले के पटियाली नामक गांव में हुआ था। अबुल हसन यमीनुद्दीन अमीर खुसरो ने आठ सुल्तानों का शासन देखा था। उन्हें खड़ी बोली के आविष्कार का श्रेय दिया जाता है। वे अपनी पहेलियों और मुकरियों के लिए जाने जाते हैं। सबसे पहले उन्हीं ने अपनी भाषा के लिए 'हिन्दवी' का उल्लेख किया था। वे फारसी के कवि भी थे। उनको दिल्ली सल्तनत का आश्रय मिला हुआ था। अपने पिता के देहांत के बाद किशोरावस्था में उन्होंने कविता लिखना प्रारम्भ किया और 20 वर्ष के होते होते वे कवि के रूप में प्रसिद्ध हो गए।
साहित्य के अतिरिक्त संगीत के क्षेत्र में भी खुसरो का महत्वपूर्ण योगदान है। उन्होंने भारतीय और ईरानी रागों का सुन्दर मिश्रण किया और एक नवीन राग शैली इमान, जिल्फ, साजगरी आदि को जन्म दिया। भारतीय गायन में कव्वाली और सितार को इन्हीं की देन माना जाता है। अमीर खुसरो की 99 पुस्तकों का उल्लेख मिलता है, किन्तु 22 ही अब उपलब्ध हैं।
मानते हैं कि खुसरो ख्वाजा निजामुद्दीन औलिया के मुरीद थे। इनके आपसी संवाद के बहुत से किस्से मौजूद हैं। कहते हैं कि निजामुद्दीन औलिया के निधन के बाद अपने प्रिय के वियोग में खुसरो ने संसार के मोहजाल काट फेंके। धन-सम्पत्ति दान कर, काले वस्त्र धारण कर अपने पीर की समाधि पर जा बैठे - कभी न उठने का दृढ निश्चय करके। और वहीं बैठ कर प्राण विसर्जन करने लगे।कुछ दिन बाद ही पूरी तरह विसर्जित होकर खुसरो के प्राण अपने प्रिय से जा मिले। पीर की वसीयत के अनुसार अमीर खुसरो की समाधि भी अपने प्रिय की समाधि के पास ही बना दी गई।
छाप तिलक सब छीनी रे मोसे नैना मिलाइके
प्रेम भटी का मदवा पिलाइके
मतवारी कर लीन्ही रे मोसे नैना मिलाइके
गोरी गोरी बईयाँ, हरी हरी चूड़ियाँ
बईयाँ पकड़ धर लीन्ही रे मोसे नैना मिलाइके
बल बल जाऊं मैं तोरे रंग रजवा
अपनी सी रंग दीन्ही रे मोसे नैना मिलाइके
खुसरो निजाम के बल बल जाए
मोहे सुहागन कीन्ही रे मोसे नैना मिलाइके
छाप तिलक सब छीनी रे मोसे नैना मिलाइके
...गोरी सोवे सेज पर, मुख पर डारे केस।■
चल खुसरो घर आपने, सांझ भयी चहु देस।।
खुसरो मौला के रुठते, पीर के सरने जाय।
कहे खुसरो पीर के रुठते, मौला नहिं होत सहाय।।
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