शख्सियत ही नहीं, हस्ताक्षर थे वाजपेयीजी
अटलजी को करीब से जानने वालों में वरिष्ठ पत्रकार अच्युतानंद मिश्र भी हैं। वह मानते हैं कि स्वतंत्र भारत के राजनीतिक इतिहास में वाजपेयीजी सरीखा व्यक्तित्व नहीं हुआ। वे राजनेता थे, स्टेट्समैन थे। ऐसे नेता बहुत कम हुए, जो सभी के प्रिय हों। उनका विराट व्यक्तित्व ही है, जो लगभग 14 वर्षों की बीमारी और जनता से दूरी के बावजूद सबके दिलों में रहा। अंतिम यात्रा में ऐसा जनसैलाब विरले ही मिलता है, जब देश-विदेश से भी लोग उमड़ें। सियासत का फासला रखने वालों ने भी उन्हें सिरमौर बनाया और उनके अंतिम दर्शन को पहुंचे। अटलजी की शख्सियत को अच्युतानंदजी की नजरों से समझने की कोशिश करती बातचीत के प्रमुख अंश:-
अटलजी से आपकी मुलाकात कब और कैसे हुई?
उनसे मेरी पहली भेंट 1953 में हुई। तब वे लखनऊ से लोकसभा का उपचुनाव लड़ रहे थे। जनसंघ पार्टी 1952 में बनी थी और वे जनसंघ के प्रत्याशी थे। मैं तब बनारस में पढ़ाई कर रहा था और कुछ दिन के लिए लखनऊ आया था। वहां उत्सुकतावश उनके चुनाव प्रचार में जुट गया। उनके भाषणों से प्रभावित अन्य युवा उनसे जुड़ते थे, मैं भी जुड़ गया। वह चुनाव अटलजी हार गए और दिल्ली आ गए।
मुलाकात घनिष्ठता में कैसे बदल गई?
करीब दस साल बाद 1962 के दौरान अटलजी से रायबरेली में फिर संपर्क हुआ। वे लोकसभा चुनाव के लिए एक रैली में आए थे। उस दौरान उनके साथ कुछ समय बिताने और सवाल-जवाब करने का मौका मिला। फिर 1964 में उनसे लखनऊ में मिलना हुआ। तब मैं ‘पांचजन्य’ में काम कर रहा था और अटल जी ‘पांचजन्य’ के संपादक रह चुके थे। लखनऊ से उनका खास लगाव था और जब भी लखनऊ आते, तो ‘पांचजन्य’ के पुराने लोगों के बारे में पूछते रहते थे। वहां हमारे एक सहयागी भानुप्रताप शुक्ला भी थे, जिनके अटलजी से पुराने संबंध थे। शुक्लाजी के साथ रहकर अटलजी से मुलाकातें बढ़ने लगीं। 1966 में गौ-हत्या पर रोक की मांग पर प्रदर्शन कर रहे साधु-संतों पर पुलिस ने गोलियां चला दी थीं। इस घटना को कवर करने के लिए दिल्ली आए थे। तब हम अटलजी के घर पर ही रुके थे। साधु-संतों पर गोली चलाने की घटना पर अटलजी बहुत दुखी और नाराज थे। इस दौरान उनसे लगातार संपर्क रहा, लेकिन नजदीकियां तब हुईं जब वे स्थाई तौर पर दिल्ली में रहने लगे।
अटलजी की खासियत, जो उन्हें विरोधियों में भी इतना अधिक लोकप्रिय रखी?
वे अपने विरोधियों के प्रति कटुता नहीं रखते थे, सभी से उनके सौहार्दपूर्ण संबंध रहे और यही उनकी खासियत थी। जनसंघ को दूसरे दल अछूत की तरह मानते थे, लेकिन निजी तौर पर अटलजी से सभी के अच्छे संबंध थे। वे 1957 में बलरामपुर से जीत कर लोकसभा पहुंचे, तो सदन में उनका भाषण सुनकर ही प्रथम प्रधानमंत्री जवाहरलाल नेहरू ने कहा था कि उनमें प्रधानमंत्री बनने के गुण हैं। उनको जनसंघ में उदार नेता माना जाता था कुछ लोग कहते थे कि वे बहुत अच्छे नेता हैं, लेकिन गलत पार्टी में हैं।
देश के नेताओं में वे विशेष दर्जा रखते थे और उनके भाषण को सुनने बड़ी भीड़ जुटती थी, ऐसा क्यों?
समाज को देखने का अटलजी का व्यापक दृष्टिकोण था। सब को साथ लेकर चलना और सभी के साथ चलना। यह उनमें विलक्षण गुण था। अपने भाषण कौशल, विषयों पर पकड़ और उदारवादी दृष्टिकोण के चलते वे अपनी अलग छवि बनाते चले गए। उनका यह व्यापक दृष्टिकोण ही था कि बांग्लादेश युद्ध के दौरान उन्होंने सरकार का समर्थन भी किया और प्रशंसा भी।
उनसे जुड़ा कोई प्रसंग, जब बतौर पत्रकार आप असहमत रहे हों?
उन्हें लेकर कई स्मृतियां हैं। एक घटना संघ लोक सेवा आयोग (यूपीएससी) की परीक्षाओं में हिंदी के इस्तेमाल को लेकर है। यूपीएससी में पहले सिर्फ अंग्रेजी में ही पेपर आते थे। मोरारजी देसाई की सरकार में इसे अंग्रेजी के साथ हिंदी भी कर दिया गया था। मई 1994 में भारतीय भाषाओं में परीक्षा की मांग पर यूपीएससी पर धरना चल रहा था। तब अटलजी लोकसभा में विपक्ष के नेता थे। धरने में अटलजी, चौधरी देवीलाल के अलावा पूर्व राष्ट्रपति ज्ञानी जैल सिंह भी शामिल हुए थे। वहां अटलजी ने ऐलान किया कि आज ही संसद में इस मुद्दे पर वे फैसला कराएंगे। हालांकि, ऐसा हो नहीं पाया। उन्होंने लोकसभा में मुद्दा उठाया भी, लेकिन स्पीकर शिवराज पाटिल के साथ विभिन्न दलों की बैठक बेनतीजा रही थी। कुछ साल बाद अटलजी प्रधानमंत्री बने। इस दौरान एक दिन उनके घर पर एक पुस्तक विमोचन कार्यक्रम हुआ। वहां, मैंने उस घटना का जिक्र करते हुए उनसे पूछा कि यूपीएससी में तो धरना खत्म हो गया है, लोकिन उस समय धरना देने वाले लड़के कह रहे हैं कि अब अटलजी के घर पर ही धरना देना पड़ेगा। उनका जवाब था कि दक्षिण के राज्यों का रुख तो देखो। उनके चेहरे पर लाचारी और पीड़ा साफ झलकी थी कि वे अपनी ही मांग को पूरा नहीं कर पा रहे थे।
व्यक्ति के तौर पर जब अटलजी ने आपको भावुक कर दिया हो?
एक बार दिल्ली के एक समाचारपत्र में काम करते हुए हमारे सहयोगी का छोटा बेटा बीमार था और उसे एम्स में बेड नहीं मिल पा रहा था। अटलजी विपक्ष के नेता थे। मैंने उन्हें फोन करके मदद करने का आग्रह किया। शाम को अटलजी उस बच्चे को देखने एम्स चले गए। उनके जाते ही बच्चे को बेड मिल गया। यह उनके काम करने का तरीका था।
बतौर पीएम मीडिया को लेकर क्या अटलजी स्वच्छंद विचार रखते थे?
वे स्वयं एक पत्रकार रह चुके थे, कवि भी थे, तो लेखन की स्वतंत्रता में अटलजी कभी बाधक नहीं बने। अपनी निंदा करने वालों का भी वे सम्मान करते थे। प्रधानमंत्री रहते हुए एक बार उन्होंने अपने साथ लखनऊ चलने को कहा। हवाई जहाज में उन्होंने पूछा कि देश में माहौल कैसा है। मेरा जवाब था कि जो नेता 40 साल तक विपक्ष में रहा हो, उससे देश व उसकी पार्टी को बहुत उम्मीदें रहती हैं। उन्होंने पूछा कि अगर उम्मीदें पूरी न हों तो क्या होगा? मैंने कहा कि फिर स्वाभाविक परिणति होगी। वे अपनी सरकार को लेकर समाज के हर वर्ग के लोगों से इसी तरह राय लेते रहते थे। वर्ष 2004 के चुनाव में हार से वे टूट गए थे। वर्ष 2006 में माखन लाल चतुर्वेदी विश्वविद्यालय का कुलपति रहते हुए अटलजी को पत्रकार होने के नाते मानद डाक्टरेट की उपाधि देने का फैसला किया गया। जब मैं उनको इस फैसले की जानकारी देने गया, तो वे बस देखते रहे। कुछ बोल नहीं पाए। उनके चेहरे पर धन्यवाद बोलने के भाव थे। तब वे बीमारी की चपेट में आने लगे थे। उनके होश-हवास की यही अंतिम भेंट थी। बाद में उनके जन्मदिन पर जाते रहे, लेकिन तब वे किसी को भी पहचानने की हालात में नहीं थे।
आपकी नजर में अटलजी का व्यक्तित्व?
वास्तव में वे साहित्य, संस्कृति व कला के व्यक्ति थे। वे राजनीति में संयोग से आ गए थे। जब मैं दिल्ली आ गया, तो उनके यहां चला जाता था। उनको लोगों से मिलने का बहुत शौक था। गपशप का भी शौक था। उनको खान-पान का भी शौक था। वे अपने से बड़ों का सम्मान और छोटों को प्यार देना जानते थे। संवेदनशील थे, निजी रिश्ते निभाना जानते थे। यही वजह है कि वे ममता बनर्जी की बीमार मां को देखने भी कोलकाता चले गए थे।
■ सोनी सिंह (काशी पत्रिका)
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