साहित्यिक झरोखा: सूरदास के बाल-गोपाल - Kashi Patrika

साहित्यिक झरोखा: सूरदास के बाल-गोपाल


मेरो मन अनत कहाँ सुख पावै।
जैसे उड़ि जहाज की पंछी, फिरि जहाज पै आवै॥
कमल-नैन को छाँड़ि महातम, और देव को ध्यावै।
परम गंग को छाँड़ि पियासो, दुरमति कूप खनावै॥
जिहिं मधुकर अंबुज-रस चाख्यो, क्यों करील-फल भावै।
'सूरदास' प्रभु कामधेनु तजि, छेरी कौन दुहावै॥

लम्बे जीवनकाल का हर क्षण आनंद से भरा होता हैं। इसमें हम कई रसों का आस्वादन करते हैं, जिनसे मन- मस्तिष्क में एक विछोभ पैदा होता हैं। इन विछोभों की निष्पत्ति ही आनंद हैं। जब कोई साहित्यि सम्राट हमारे मन मस्तिष्क के इन्हीं तारों को झंकृत करता हैं, तो हम भी उन्हीं भावों का आनंद लेते है, जिसका आनंद ले साहित्कार ने रचना की होती है। इन्हीं साहित्कारों में भक्त वत्सल सूरदास का नाम सदियों से पीढ़ियां लेती आई हैं। सूरदास जी वात्सल्य रस के सम्राट माने जाते हैं। उन्होंने श्रृंगार और शान्त रसों का भी बड़ा मर्मस्पर्शी वर्णन किया है। सूरदास हिंन्दी साहित्य में भक्ति काल के सगुण भक्ति शाखा के कृष्ण-भक्ति उपशाखा के महान कवि हैं।

सूरदास का जन्म 1478 ईस्वी में रुनकता नामक गाँव में हुआ। यह गाँव मथुरा-आगरा मार्ग के किनारे स्थित है। कुछ विद्वानों का मत है कि सूर का जन्म सीही  नामक ग्राम में एक निर्धन सारस्वत ब्राह्मण परिवार में हुआ था। बाद में ये आगरा और मथुरा के बीच गऊघाट पर आकर रहने लगे थे। सूरदास के पिता रामदास गायक थे।प्रारंभ में सूरदास आगरा के समीप गऊघाट पर रहते थे। वहीं उनकी भेंट श्री वल्लभाचार्य से हुई और वे उनके शिष्य बन गए। वल्लभाचार्य ने उनको पुष्टिमार्ग में दीक्षित कर के कृष्णलीला के पद गाने का आदेश दिया। 

सूरदास श्रीनाथ की "संस्कृतवार्ता मणिपाला', श्री हरिराय कृत "भाव-प्रकाश", श्री गोकुलनाथ की "निजवार्ता' आदि ग्रन्थों के आधार पर, जन्म के अन्धे माने गए हैं। लेकिन राधा-कृष्ण के रुप सौन्दर्य का सजीव चित्रण, नाना रंगों का वर्णन, सूक्ष्म पर्यवेक्षणशीलता आदि गुणों के कारण अधिकतर वर्तमान विद्वान सूर को जन्मान्ध स्वीकार नहीं करते।"

सूरदास को हिंदी साहित्य का सूरज कहा जाता है। वे अपनी कृति “सूरसागर” के लिये प्रसिद्ध है। कहा जाता है की उनकी इस कृति में लगभग 100000 गीत है, जिनमें से आज केवल 8000 ही बचे है। उनके इन गीतों में कृष्ण के बचपन और उनकी लीला का वर्णन किया गया है। इतना ही नहीं सूरसागर के साथ उन्होंने सुर-सारावली और सहित्य-लहरी की भी रचना की है।

सूरदास की मधुर कवितायें और भक्तिमय गीत लोगों को भगवान की तरफ आकर्षित करते थे। धीरे-धीरे उनकी ख्याति बढ़ती गयी, और मुगल शासक अकबर (1542-1605) भी उनके दर्शक बन गये। सूरदास ने अपने जीवन के अंतिम वर्षो को ब्रज में बिताया। और भजन गाने के बदले उन्हें जो कुछ भी मिलता, उसी से उनका गुजारा होता था। कहा जाता है कि इसवी सन 1584 में उनकी मृत्यु हुई थी। 

सूरदास के मत अनुसार श्री कृष्ण भक्ति करने और उनके अनुग्रह प्राप्त होने से मनुष्य जीव आत्मा को सद्गति प्राप्त हो सकती है। सूरदास ने वात्सल्य रस, शांत रस, और श्रृंगार रस को अपनाया था। सूरदास ने केवल अपनी कल्पना के सहारे श्री कृष्ण के बाल्य रूप का अदभुत, सुंदर, दिव्य वर्णन किया था। जिसमें बाल-कृष्ण की चपलता, स्पर्धा, अभिलाषा, और आकांक्षा का वर्णन कर के विश्वव्यापी बाल-कृष्ण स्वरूप का वर्णन प्रदर्शित किया था। सूरदास ने अत्यंत दुर्लभ ऐसा “भक्ति और श्रृंगार” को मिश्रित कर के, संयोग वियोग जैसा दिव्य वर्णन किया था, जिसे किसी और के द्वारा पुनः रचना अत्यंत कठिन होगा। स्थान संस्थान पर सूरदास के द्वारा लिखित कूट पद बेजोड़ हैं। यशोदा मैया के पात्र के शील गुण पर सूरदास के लिखे चित्रण प्रशंसनीय हैं। सूरदास के द्वारा लिखी गईं कविताओं में प्रकृति-सौन्दर्य का सुंदर, अदभूत वर्णन किया गया है। सूरदास कविताओं में पूर्व कालीन आख्यान, और ऐतिहासिक स्थानों का वर्णन निरंतर होता था। सूरदास हिन्दी साहित्य के महा कवि माने जाते हैं।

रचनाएं
सूरदास की रचनाओं में निम्नलिखित पाँच ग्रन्थ बताए जाते हैं -

१ सूरसागर
२ सूरसारावली
३ साहित्य-लहरी
४ नल-दमयन्ती
५ ब्याहलो

है हरि नाम कौ आधार।और इहिं कलिकाल नाहिंन रह्यौ बिधि-ब्यौहार॥नारदादि सुकादि संकर कियौ यहै विचार।सकल स्रुति दधि मथत पायौ इतौई घृत-सार॥दसहुं दिसि गुन कर्म रोक्यौ मीन कों ज्यों जार।सूर, हरि कौ भजन करतहिं गयौ मिटि भव-भार॥
मेरी माई, हठी बालगोबिन्दा।

अपने कर गहि गगन बतावत, खेलन कों मांगै चंदा॥बासन के जल धर्‌यौ, जसोदा हरि कों आनि दिखावै।रुदन करत ढ़ूढ़ै नहिं पावत,धरनि चंद क्यों आवै॥दूध दही पकवान मिठाई, जो कछु मांगु मेरे छौना।भौंरा चकरी लाल पाट कौ, लेडुवा मांगु खिलौना॥जोइ जोइ मांगु सोइ-सोइ दूंगी, बिरुझै क्यों नंद नंदा।सूरदास, बलि जाइ जसोमति मति मांगे यह चंदा॥
अंखियां हरि-दरसन की भूखी।

कैसे रहैं रूप-रस रांची ये बतियां सुनि रूखी॥अवधि गनत इकटक मग जोवत तब ये तौ नहिं झूखी।अब इन जोग संदेसनि ऊधो, अति अकुलानी दूखी॥बारक वह मुख फेरि दिखावहुदुहि पय पिवत पतूखी।सूर, जोग जनि नाव चलावहु ये सरिता हैं सूखी॥

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