निज भाषा उन्नति लहै सब उन्नति को मूल।
बिन निज भाषा ज्ञान के मिटे न हिय को शूल॥
विविध कला शिक्षा अमित, ज्ञान अनेक प्रकार।
सब देसन से लै करहू, भाषा माहि प्रचार॥
जन्मदिन विशेष : आधुनिक हिंदी के पहले रचनाकार और पितामह कहे जाने वाले भारतेन्दु हरिश्चंद्र का आज जन्मदिन हैं। उनका जन्म 9 सितम्बर, 1950 को काशी के एक प्रतिष्ठित परिवार में हुआ। बचपन में ही उन्होंने अपने माता-पिता को खो दिया। पिता के कुछ वर्षों के साथ और उनकी मृत्यु उपरांत बचपन की दुश्वारियों ने ही शायद उन्हें साहित्यकार बना दिया। पांच वर्ष की अवस्था में लिखी उनकी एक रचना ने उनकी प्रतिभा का प्रदर्शन कर दिया था -
लै ब्योढ़ा ठाढ़े भए श्री अनिरुद्ध सुजान।
बाणासुर की सेन को हनन लगे भगवान॥
जीवन परिचय
इनका मूल नाम 'हरिश्चन्द्र' था, 'भारतेन्दु' उनकी उपाधि थी। उनकी लोकप्रियता से प्रभावित होकर काशी के विद्वानों ने 1880 में उन्हें 'भारतेंदु'(भारत का चंद्रमा) की उपाधि प्रदान की। हिन्दी साहित्य में आधुनिक काल का प्रारम्भ भारतेन्दु हरिश्चन्द्र से माना जाता है। भारतेन्दु के वृहत साहित्यिक योगदान के कारण ही 1857 से 1900 तक के काल को भारतेन्दु युग के नाम से जाना जाता है। भारतीय नवजागरण के अग्रदूत के रूप में प्रसिद्ध भारतेन्दु जी ने देश की गरीबी, पराधीनता, शासकों के अमानवीय शोषण का चित्रण को ही अपने साहित्य का लक्ष्य बनाया। हिन्दी को राष्ट्र-भाषा के रूप में प्रतिष्ठित करने की दिशा में उन्होंने अपनी प्रतिभा का उपयोग किया।
अठारह वर्ष की अवस्था में उन्होंने ‛कविवचनसुधा’ नामक पत्रिका निकाली, जिसमें उस समय के बड़े-बड़े विद्वानों की रचनाएं छपती थीं। उन्होंने 1868 में 'कविवचनसुधा', 1873 में 'हरिश्चन्द्र मैगजीन' और 1874 में स्त्री शिक्षा के लिए 'बाला बोधिनी' नामक पत्रिकाएँ निकालीं। वैष्णव भक्ति के प्रचार के लिए उन्होंने 'तदीय समाज' की स्थापना की थी। 1885 में अल्पायु में ही मृत्यु ने उन्हें ग्रस लिया।
भारतेन्दु हरिश्चंद्र एक उत्कृष्ट कवि, सशक्त व्यंग्यकार, सफल नाटककार, जागरूक पत्रकार तथा ओजस्वी गद्यकार थे। इसके अलावा वे लेखक, कवि, संपादक, निबंधकार, एवं कुशल वक्ता भी थे। भारतेन्दु जी ने मात्र चौंतीस वर्ष की अल्पायु में ही विशाल साहित्य की रचना की। इनकी प्रमुख नाटक कृतियों में हैं सत्य हरिश्चंद्र, श्री चंद्रावली, भारत दुर्दशा, अंधेर नगरी। इनकी आत्मकथा का एक कहानी- कुछ आपबीती, कुछ जगबीती हैं। इन्होंने पूर्णप्रकाश और चंद्रप्रभा नाम के दो उपन्यास भी लिखे हैं।
जगत में घर की फूट बुरी। घर की फूटहिं सो बिनसाई, सुवरन लंकपुरी।फूटहिं सो सब कौरव नासे, भारत युद्ध भयो। जाको घाटो या भारत मैं, अबलौं नाहिं पुज्यो। फूटहिं सो नवनंद बिनासे, गयो मगध को राज।चंद्रगुप्त को नासन चाह्यौ, आपु नसे सहसाज। जो जग में धनमान और बल, अपुनो राखन होय। तो अपने घर में भूलेहु, फूट करो मति कोय॥
रोअहू सब मिलिकै आवहु भारत भाई। हा हा! भारतदुर्दशा न देखी जाई॥ धु्रव॥ सबके पहिले जेहि ईश्वर धन बल दीनो।सबके पहिले जेहि सभ्य विधाता कीनो॥ सबके पहिले जो रूप रंग रस भीनो। सबके पहिले विद्याफल जिन गहि लीनो॥ अब सबके पीछे सोई परत लखाई।हा हा! भारतदुर्दशा न देखी जाई॥ जहँ भए शाक्य हरिचंदरु नहुष ययाती। जहँ राम युधिष्ठिर बासुदेव सर्याती॥ जहँ भीम करन अर्जुन की छटा दिखाती।तहँ रही मूढ़ता कलह अविद्या राती॥ अब जहँ देखहु दुःखहिं दुःख दिखाई।हा हा! भारतदुर्दशा न देखी जाई॥ लरि बैदिक जैन डुबाई पुस्तक सारी।करि कलह बुलाई जवनसैन पुनि भारी॥ तिन नासी बुधि बल विद्या धन बहु बारी।छाई अब आलस कुमति कलह अंधियारी॥ भए अंध पंगु सेब दीन हीन बिलखाई। हा हा! भारतदुर्दशा न देखी जाई॥ अँगरेराज सुख साज सजे सब भारी।पै धन बिदेश चलि जात इहै अति ख़्वारी॥ताहू पै महँगी काल रोग बिस्तारी।दिन दिन दूने दुःख ईस देत हा हा री॥सबके ऊपर टिक्कस की आफत आई।हा हा! भारतदुर्दशा न देखी जाई॥
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