बात जब इश्क की हो, जो जेहन में सिर्फ और सिर्फ रुमानियत ही मंडराती है।
उन फूलों की क्या बिसात, जो खुदा को रिझाएं
वह खुशबू तो इश्क की थी, जो फूलों ने बिखेरी
जरूरी नहीं कि इंसान के कुढ़ने की कोई खास वजह हो, कई बार बेवजह भी
खूब कुढ़ा जा सकता है। आज आपके इस अनपढ़ के बेशुमार कुढ़न की कोई वजह नहीं है। कई दिनों से एकाकी मन किश्तों में कुढ़ रहा था, आज समग्र हो कुढ़न कलुषित रूप ले ली, फिर भी बहाना तो चाहिए। पिछली कुछ घटनाओं पर ध्यानेंद्रित हुआ और क्षणांश में धारा-377 कौंध गई। बस, मन के जाल ने दिलोदिमाग पर धावा बोला और अंतर्मन दर्पण बन गया।
सुप्रीम कोर्ट ने समलैंगिक समाज को उनकी निजता के अधिकारों को तवज्जो दी और धारा-377 को समाप्त कर दिया। इस फैसले ने देश-दुनिया-समाज को बहस-मुबाहसे की चाशनी भेंट कर दी और हंसी-मजाक से लेकर अंतर्संबंधों की पराकाष्ठा उद्वेलित हो उठी। इन सबमें अगर कुछ अच्छा हुआ, तो वह है उन 1% लोगों का सुकून जो इस फैसले से लाभान्वित हुए। खैर, फैसले के फ्लैशबैक या इसके बाद की प्रतिक्रिया की बजाय हम मुद्दे पर लौटते हैं। वह 1% लोग कौन हैं, क्या वे हमारी तरह सांस नहीं लेते या उनका खानपान इतर है। यकीनन नहीं। शायद उनकी दैहिक या भावनात्मक स्थिति हमसे भिन्न हो और वे आपस में ज्यादा सहज हों, लेकिन इश्क-प्यार-मुहब्बत के मामले में उन्हें गैरसंजीदा नहीं कहा जा सकता। ...तो चलिए, आज इश्क से ही रूबरू होने की कोशिश करते हैं।
इश्क की जद्दोजहद भी गजब की है, जिंदगी भर इंसान को रिझाती है, पर वह मौत तक इसे समझ नहीं पाता। उसे खुद से उतना प्यार नहीं होता, जितनी दूसरों से नफरत होती है और जिसने इश्क को पा लिया, वह दुनियादारी से ऊपर हो गया। अर्धनारीश्वर से लेकर राम-सीता, कृष्ण-राधा तक और पैगम्बर मुहम्मदसाहब से लेकर ईसामसीह, गौतमबुद्ध, महावीर स्वामी तक सभी ने प्रेम को ही सर्वश्रेष्ठ बताया। यही वजह है कि इश्क के नुमाइंदे ईश्वर हो गए और नफरत पालने वाले इंसान भी न बन सके।
इन दिनों गाय-गोरु-गोबर से लेकर जाति-वर्ण, धर्म-संप्रदाय का खूब बोलबाला है। नेताओं को मीडिया मसाला मिला है, तो अनुयायियों ने कथित 'मॉब-लिंचिंग' को अपना एंटरटेनमेंट बनाया है। इसी बीच आए धारा-377 के फैसले ने समाज के पहरेदारों से एक तबके पर बरसने वाली लाठी छीन ली है। अगर, इश्क का चश्मा लगाएं, तो दिखेगा कि गौमाता से प्रेम भले न हो उन्हें नुकसान पहुंचाने वालों के प्रति नफरत भरपूर है, खुद के धर्म में श्रद्धा हो न हो दूसरा धर्म फूटी आंखों नहीं सुहाता। खुद को परिष्कृत करने की बजाय दूसरों को घृणित घोषित करने में पूरी ऊर्जा झोंक देनी है।
तमाम विषमताओं के बावजूद इश्क की जद्दोजहद जारी है। इश्क की तिक्तता ही उसकी ताकत है, मां की कोख से लेकर मृत्युशैया तक उसके रिश्ते बदलते रहते हैं लेकिन हर रिश्ते में वह उतना शाश्वत होता है। वह इश्क ही है जो वर्तमान में जीता है, दुनिया से बेफिकर। सही-गलत से दूर अपने आप में व्यस्त, मां के आंचल में उसे आकाश की विशालता दिखती है तो प्रेयसी की आंखों में समंदर सी गहराई। इश्क का मजहब भी इश्क है, जाति भी इश्क और लिंग भी इश्क ही है। अगर, हम खुद में पल भर भी झांक लें तो उन तमाम लोगों की समस्या हल हो जाए, जो हमारी नफरत के शिकार हैं। काश..! हम इश्क के अनुयायी बन पाते और धर्म-जाति, लिंग-भेद के सौदागरों का किस्सा खत्म हो जाता।
इश्क की ईंट न जोड़ी हमने,
नफरत को दिल से अपनाया।।
मस्जिद की ईंट भी तोड़ी लेकिन,
उसमें राम नजर न आया।।
मंदिर के फूलों की खुशबू,
मौलाना माली ले आया।।
चर्च में जाकर राम मिले तो,
किसी ने उनको जॉन बताया।।
आंख खुली तो मय्यत पर थे,
सबने मिलकर बोझ उठाया।।
■ कृष्णस्वरूप
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