किताबों में मेरे फसाने ढूंढते हैं,
नादां हैं गुजरे जमाने ढूंढते हैं।
जब वो थे तलाशे-जिंदगी भी थी,
अब तो मौत के ठिकाने ढूंढते हैं।
कल खुद ही अपनी महफिल से निकाला था,
आज हुए से दीवाने ढूंढते हैं।
मुसाफिर बे-खबर हैं तेरी आंखों से,
तेरे शहर में मैखाने ढूंढते हैं।
तुझे क्या पता ऐ सितम ढाने वाले,
हम तो रोने के बहाने ढूंढते हैं।
उनकी आंखों को यूं ना देखो ’फराज’
नए तीर हैं, निशाने ढूंढते हैं।
■अहमद फराज
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