“सारी बात दृष्टि की है” - Kashi Patrika

“सारी बात दृष्टि की है”

एक मित्र थे, दूर से एक लड़की को देखकर कुछ कहा और लड़की के पास आने पर अपने ही शब्दों पर लज्जित हो उठे! आखिर क्यों! सब दृष्टि की बात है...

अपने एक मित्र के साथ एक बगीचे की बेंच पर बैठा था। विश्वविद्यालय में जब पढ़ता था, तब की बात है। सांझ का वक्त था, धुंधलका उतर आया था। और दूर से एक लड़की आती हुई मालूम पड़ी।
उस मित्र ने उस लड़की की तरफ कुछ वासना- भरी बातें कहीं। जैसे-जैसे लड़की करीब आने लगी, वह थोड़ा बेचैन हुआ। मैंने पूछा कि मामला क्या है? तुम थोड़े लड़खड़ा गए! उसने कहा कि थोड़ा रुके; मुझे डर है कि कहीं यह मेरी बहन न हो। और जब वह और करीब आई और बिजली के खंभे के नीचे आ गई। वह उसकी बहन ही थी।
मैंने पूछा, अब क्या हुआ? यह लड़की वही है; जरा धुंधलके में थी, वासना जगी। पहचान न पाए, वासना जगी। अब पास आ गई, अब थोड़ा खोजो अपने भीतर, कहीं वासना है?
वह कहने लगा, सिवाय पश्चात्ताप के और कुछ भी नहीं। दुखी हूं कि ऐसी बात मैंने कही, कि ऐसे शब्द मेरे मुंह से निकले। मैंने उससे कहा कि जरा खयाल रखना, सारी बात दृष्टि की है। अब यह भी हो सकता है कि और पास आकर पता चले, तुम्हारी बहन नहीं;फिर नजर बदल जाएगी; फिर वासना जगह कर लेगी।
सत्य तो एक ही है। जब तुम लोभ की नजर से देखते हो, संसार बन जाता है। जब तुम निर्वाण की नजर से देखते हो, परमात्मा बन जाता है।
■ ओशो 

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