एक फकीर था नान इन। एक आदमी उससे मिलने आया। वह बड़े क्रोध में था। घर में पत्नी से कुछ झगड़ा हो गया था। क्रोध में नान इन के दरवाजे पर पहुंचा। आकर जोर से दरवाजा खोला। इतने जोर से कि दरवाजा दीवार से टकराया और क्रोध में ही जूते उतारकर रख दिए। भीतर गया। नान इन को झुककर नमस्कार किया।
नान इन ने कहा, “तुम्हारा नमस्कार स्वीकार नहीं है। तुम पहले जाकर दरवाजे से और अपने जूते पर सिर रख कर उससे क्षमा मांगों।”
उस आदमी ने कहा, “आप क्या बात कर रहे हैं! दरवाजे और जूते में कोई जान है, जो उनसे क्षमा मांगू!”
नान इन ने कहा, “जब तुम इतने समझदार हो, तो जूते पर क्रोध क्यों प्रगट किया? जूते में कोई जान है, जो क्रोध प्रगट किया! दरवाजे को इतने जोर से धक्का क्यों दिया? दरवाजा कोई तुम्हारी पत्नी है? अब जब क्रोध करने के लिए तुमने दरवाजे एवं जूते में जान मान ली, तो क्षमा मांगने में क्यों कंजूसी करता है?”
उस आदमी को बात सही लगी। उसने दरवाजे से क्षमा मांगी और जूते पर सिर रख कर उससे भी क्षमा याचना की। उस आदमी ने कहा कि इतनी शांति मुझे कभी नहीं मिली थी। जब मैंने अपने जूते पर सिर रखा, मुझे एक बात का दर्शन हुआ कि मामला तो मेरा ही है।
दुख के बाहर से नहीं आता। उसका कारण सदैव भीतर मौजूद है। ठीक उसी तरह स्वर्ग-नर्क भी यहीँ है। अपने अचेतन मन को साफ कर लो स्वर्ग निर्मित हो जाएगा।
ऊं तत्सत...
No comments:
Post a Comment