स्वरचित “हिंदुत्व” की कोठरी से बाहर निकलने को आकुल संघ ‛हिंदी, हिंदू, हिन्दुस्तान’ की नई परिभाषा गढ़ रहा है। अब सवाल यह उठता है कि संघ अपनी छवि बदलना क्यों चाहता है? आखिर कट्टर हिंदुत्व के सहारे ही तो उसने अपनी जमीन तैयार की है और भाजपा को भी इसी आंचल में सहेजने-समेटने का प्रयास करती रही है। तो, चुनावी माहौल में कुछ भी बेवजह नहीं होता, फिर संघ द्वारा कांग्रेस की तारीफ, गौरक्षा, मुस्लिम भाईचाराल...सहित हर बात के पीछे भी यकीनन वजह है। सियासी गलियारे में चर्चा है कि मोहन भागवत की अचानक बदली बोली वर्तमान मोदीनीत भाजपा से असंतुष्टि के संकेत हैं। साथ ही बदलते वक्त के साथ कदमताल की कोशिश भी है। भागवत के जरिए संघ उन लिबरल हिंदुओं को साधने का प्रयास कर रहा है, जो लींचिंग एवं लव जिहाद की खिलाफत करता है और हिंदुत्व-हिन्दुस्तान को ‛वसुधैव कुटुम्बकम’ के रूप में देखता है। मोहन भागवत ने अपने भाषण से इन सभी नाराज लोगों को यह संदेश देने की कोशिश की कि वो आधुनिकता, धर्मनिरपेक्षता और लोकतंत्र में विश्वास करते हैं।
इतना ही नहीं, संघ भाजपा के नेतृत्व से दूरी बनाता हुआ भी प्रतीत हो रहा है। दबे-छुपे संकेत यह है कि संघ वर्तमान सरकार से बहुत खुश नहीं है। तभी शायद भागवत ने कहा कि आरएसएस के स्वयंसेवक किसी भी पार्टी को वोट दे सकते हैं, जबकि यह सभी जानते हैं कि संघ भाजपा के लिए राजनीतिक जमीन तैयार करता रहा है। हालांकि, इन सबके पीछे यह भी हो सकता है कि संघ भाजपा से नाराज सवर्णों, पिछड़ों को एक छत के नीचे लाने को प्रयासरत हो, जिसमें कुछ मुस्लिम वोट भी जोड़ने की पहल हो रही है। वैसे भी, 2014 की तरह न ही जनता ने विकास की पट्टी आंखों पर बांध रखी है, न ही मोदी का जादू उस कदर बरकरार है।
कुल मिलाकर, प्रणब मुखर्जी को आमंत्रित करने के बाद से ही लगातार अपनी छवि बदलने को प्रयास करता दिख रहा है, हालांकि समय-समय पर कुछ बयान उसकी पुरानी छवि को सामने ला देता है। साथ ही संघ सहारे के बिना खुलकर सियासी जमीन तलाशता भी दिखता है, जहां संघ की स्वतंत्र पहचान ही न हो, बल्कि वह सहृदयी हिंदुत्व का नया चश्मा लगाकर देखने का प्रयास भी कर रहा है। फिलहाल सच यह है कि संघ के इस नए रूप पर विश्वास करना न विरोधियों के लिए आसान है, न समर्थकों के लिए।
■ संपादकीय
इतना ही नहीं, संघ भाजपा के नेतृत्व से दूरी बनाता हुआ भी प्रतीत हो रहा है। दबे-छुपे संकेत यह है कि संघ वर्तमान सरकार से बहुत खुश नहीं है। तभी शायद भागवत ने कहा कि आरएसएस के स्वयंसेवक किसी भी पार्टी को वोट दे सकते हैं, जबकि यह सभी जानते हैं कि संघ भाजपा के लिए राजनीतिक जमीन तैयार करता रहा है। हालांकि, इन सबके पीछे यह भी हो सकता है कि संघ भाजपा से नाराज सवर्णों, पिछड़ों को एक छत के नीचे लाने को प्रयासरत हो, जिसमें कुछ मुस्लिम वोट भी जोड़ने की पहल हो रही है। वैसे भी, 2014 की तरह न ही जनता ने विकास की पट्टी आंखों पर बांध रखी है, न ही मोदी का जादू उस कदर बरकरार है।
कुल मिलाकर, प्रणब मुखर्जी को आमंत्रित करने के बाद से ही लगातार अपनी छवि बदलने को प्रयास करता दिख रहा है, हालांकि समय-समय पर कुछ बयान उसकी पुरानी छवि को सामने ला देता है। साथ ही संघ सहारे के बिना खुलकर सियासी जमीन तलाशता भी दिखता है, जहां संघ की स्वतंत्र पहचान ही न हो, बल्कि वह सहृदयी हिंदुत्व का नया चश्मा लगाकर देखने का प्रयास भी कर रहा है। फिलहाल सच यह है कि संघ के इस नए रूप पर विश्वास करना न विरोधियों के लिए आसान है, न समर्थकों के लिए।
■ संपादकीय
No comments:
Post a Comment