वरिष्ठ कवि-लेखक-पत्रकार-आलोचक विष्णु खरे के निधन से साहित्य जगत को हुई क्षति को भरना नामुमकिन है। आज निगम बोध घाट पर उनका अंतिम संस्कार किया जाएगा। उनकी ही कविताओं के माध्यम से उन्हें नमन का प्रयास...
॥ असह्य ॥
दुनिया भर की तमाम प्यारी औरतों और आदमियों और बच्चों
मेरे अपने लोगो
सारे संगीतों महान कलाओं विज्ञानों
बड़ी चीज़ें सोच कह रच रहे समस्त सर्जकों
अब तक के सारे संघर्षों जय-पराजयों
प्यारे प्राणियों चरिन्दों परिन्दों
ओ प्रकृति
सूर्य चन्द्र नक्षत्रों सहित पूरे ब्रह्माण्ड
हे समय हे युग हे काल
अन्याय से लड़ते शर्मिंदा करते हुए निर्भय (मुझे कहने दो) साथियों
तुम सब ने मेरे जी को बहुत भर दिया है भाई
अब यह पारावार मुझसे बर्दाश्त नहीं होता
मुझे क्षमा करो
लेकिन आख़िर क्या मैं थोड़े से चैन किंचित् शान्ति का भी हक़दार नहीं
॥ उसाँस ॥
कभी-कभी
जब उसे मालूम नहीं रहता कि
कोई उसे सुन रहा है
तो वह हौले से उसाँस में सिर्फ़
हे भगवन हे भगवन कहती है
वह नास्तिक नहीं लेकिन
तब वह ईश्वर को नहीं पुकार रही होती
उसके उस कहने में कोई शिक़वा नहीं होता
जिन्दगी भर उसके साथ जो हुआ
उसने जो सहा
ये दुहराए गए शब्द फकत उसका खुलासा हैं
॥ पर्याप्त ॥
जिस तरह उम्मीद से ज्यादा मिल जाने के बाद
माँगनेवाले को चिंता नहीं रहती
कि वह कहाँ खाएगा या कब
या उसे भूख लगी भी है या नहीं
वही आलम उसका है
काफ़ी दे दिया जा चुका है उसके कटोरे में
कहीं भी कभी भी बैठकर खा लेगा जितना मन होगा
जल्दी क्या है
बच जाएगा या खाया नहीं जाएगा
तो दूसरे तो हैं
और नहीं तो वही प्राणी
जो दूर बैठे उम्मीद से देख रहे हैं
॥ डरो ॥
कहो तो डरो कि हाय यह क्यों कह दिया
न कहो तो डरो कि पूछेंगे चुप क्यों हो
सुनो तो डरो कि अपना कान क्यों दिया
न सुनो तो डरो कि सुनना लाजिमी तो नहीं था
देखो तो डरो कि एक दिन तुम पर भी यह न हो
न देखो तो डरो कि गवाही में बयान क्या दोगे
सोचो तो डरो कि वह चेहरे पर न झलक आया हो
न सोचो तो डरो कि सोचने को कुछ दे न दें
पढ़ो तो डरो कि पीछे से झाँकने वाला कौन है
न पढ़ो तो डरो कि तलाशेंगे क्या पढ़ते हो
लिखो तो डरो कि उसके कई मतलब लग सकते हैं
न लिखो तो डरो कि नई इबारत सिखाई जाएगी
डरो तो डरो कि कहेंगे डर किस बात का है
न डरो तो डरो कि हुक्म होगा कि डर
■ काशी पत्रिका
॥ असह्य ॥
दुनिया भर की तमाम प्यारी औरतों और आदमियों और बच्चों
मेरे अपने लोगो
सारे संगीतों महान कलाओं विज्ञानों
बड़ी चीज़ें सोच कह रच रहे समस्त सर्जकों
अब तक के सारे संघर्षों जय-पराजयों
प्यारे प्राणियों चरिन्दों परिन्दों
ओ प्रकृति
सूर्य चन्द्र नक्षत्रों सहित पूरे ब्रह्माण्ड
हे समय हे युग हे काल
अन्याय से लड़ते शर्मिंदा करते हुए निर्भय (मुझे कहने दो) साथियों
तुम सब ने मेरे जी को बहुत भर दिया है भाई
अब यह पारावार मुझसे बर्दाश्त नहीं होता
मुझे क्षमा करो
लेकिन आख़िर क्या मैं थोड़े से चैन किंचित् शान्ति का भी हक़दार नहीं
॥ उसाँस ॥
कभी-कभी
जब उसे मालूम नहीं रहता कि
कोई उसे सुन रहा है
तो वह हौले से उसाँस में सिर्फ़
हे भगवन हे भगवन कहती है
वह नास्तिक नहीं लेकिन
तब वह ईश्वर को नहीं पुकार रही होती
उसके उस कहने में कोई शिक़वा नहीं होता
जिन्दगी भर उसके साथ जो हुआ
उसने जो सहा
ये दुहराए गए शब्द फकत उसका खुलासा हैं
॥ पर्याप्त ॥
जिस तरह उम्मीद से ज्यादा मिल जाने के बाद
माँगनेवाले को चिंता नहीं रहती
कि वह कहाँ खाएगा या कब
या उसे भूख लगी भी है या नहीं
वही आलम उसका है
काफ़ी दे दिया जा चुका है उसके कटोरे में
कहीं भी कभी भी बैठकर खा लेगा जितना मन होगा
जल्दी क्या है
बच जाएगा या खाया नहीं जाएगा
तो दूसरे तो हैं
और नहीं तो वही प्राणी
जो दूर बैठे उम्मीद से देख रहे हैं
॥ डरो ॥
कहो तो डरो कि हाय यह क्यों कह दिया
न कहो तो डरो कि पूछेंगे चुप क्यों हो
सुनो तो डरो कि अपना कान क्यों दिया
न सुनो तो डरो कि सुनना लाजिमी तो नहीं था
देखो तो डरो कि एक दिन तुम पर भी यह न हो
न देखो तो डरो कि गवाही में बयान क्या दोगे
सोचो तो डरो कि वह चेहरे पर न झलक आया हो
न सोचो तो डरो कि सोचने को कुछ दे न दें
पढ़ो तो डरो कि पीछे से झाँकने वाला कौन है
न पढ़ो तो डरो कि तलाशेंगे क्या पढ़ते हो
लिखो तो डरो कि उसके कई मतलब लग सकते हैं
न लिखो तो डरो कि नई इबारत सिखाई जाएगी
डरो तो डरो कि कहेंगे डर किस बात का है
न डरो तो डरो कि हुक्म होगा कि डर
■ काशी पत्रिका
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