अश्क वही जो तारा बन कर पलकों पर थर्राता है,
दर्द वही जो मीठे-मीठे गीतों में ढल जाता है...
कौन-सी चीज है जो जीवन की धार को मोड़ देती है? वह क्षण कौन-सा है, जब जीवन की सरिता एक नया मोड़ लेती है--अतृप्ति से तृप्ति की ओर, दुख से आनंद की ओर, नरक से स्वर्ग की ओर! वह लम्हा वही लम्हा है, वह क्षण वही क्षण है, जब तुम बाहर की तरफ देखना बंद करके भीतर की तरफ देखना शुरू करते हो।
सत्य तो तुम्हारे भीतर है। और उसको ही पीओगे तो तृप्ति है। बाहर तो सब झूठ है, बाहर तो सब दौड़ है, आपा-धापी है, चिंता-विषाद है। लेकिन आनंद वहां नहीं है। तो मैं तुमसे कहूंगा, अपने में चलो। वहीं तुम पाओगे सोना। बाहर तो मिट्टी के ढेर लगा लोगे। वहीं तुम पाओगे चिन्मय ज्योति। बाहर अगर इकट्ठे भी किए तो बुझे हुए मिट्टी के दीए ही इकट्ठे कर पाओगे। वही शास्त्रों में मिलेंगे--मिट्टी के दीए, जिनकी रोशनी न मालूम कब की बुझ गई। लेकिन अगर तुम्हें उस रोशनी को पाना है, जो जलती है भीतर--बिन बाती बिन तेल--तो फिर मांगो मत। मांग छोड़ो, कामना न करो, वासना न करो। मत कहो--और! और! कहो--बस! ठहरो, विराम में आओ! पूर्णविराम लगा दो दौड़ पर। आंख बंद भीतर करो। भीतर डूबो--और तुम पा लोगे सब राजों का राज!
कंचन कंचन ही सदा, कांच कांच सो कांच।
दरिया झूठ सो झूठ है, सांच सांच सो सांच।।
■ ओशो
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