बेबाक हस्तक्षेप - Kashi Patrika

बेबाक हस्तक्षेप

देश की फिजा में आगामी लोकसभा चुनाव की तैयारी घुलमिल गई है। ऐसे में चहुओर जो कुछ भी सुनाई-दिखाई पड़ रहा है, सब प्रायोजित है। नित नए समीकरण गढ़े जा रहे हैं और लीक से हटकर दिखने की होड़ है। तभी संघ के मंच से मोहन भागवत दोहराते हैं, "जो भारत को अपनी मातृभूमि मानता है, वो सभी अपने हैं। हमलोग स्पष्ट रूप से हिंसा के खिलाफ हैं।" तो वहीं, राहुल गांधी एवं अखिलेश यादव को निमंत्रण देकर ही नहीं, बल्कि मंच से कांगेस की तारीफ कर संघ अपनी छवि बदलने का प्रयास करता दिखता है। परंतु, हिंदुत्व को लेकर अपनी कट्टरता पर भी कायम लगता है। उधर, राहुल गांधी देश में व्याप्त वर्तमान समस्याओं को उठाने के साथ ही समाधान के रस्ते राजनीतिक जमीन तलाशने की कोशिश तो करते हैं, लेकिन हिंदुत्व को अनदेखा कर आगे नहीं बढ़ते, बल्कि सेक्युलर कांग्रेस “हिंदूवाद” को भी थामते हुए आगे बढ़ने को लालायित दिखती है। ऐसा लगता है कि सियासत देश के बहुसंख्यकों को साधकर सत्ता का रास्ता तलाश रही है, ताकि बड़े वोट बैंक पर आसानी से कब्जा किया जा सके।
इस बीच, सफलता के पुराने पैमानों को लपकने की कोशिश भी की जा रही है। 2014 में भाजपा को जीत तक पहुंचाने में मुख्य भूमिका निभाने वाले प्रशांत किशोर को नीतीश कुमार ने जेडीयू में शामिल कर एक बड़ा दाव चल दिया है। राजनीतिक गलियारे में यह माना जा रहा है कि नीतीश कुमार ने इस तरह एक तीर से कई निशाना साधा है। अब तीर निशाने पर लगता है या नहीं यह तो वक्त बताएगा! फिलहाल वे भी मिशन 2019 को लेकर अपनी रणनीति बनाने में जुटे हुए हैं और इस दौड़ में बने रहना चाहते हैं।
कुल मिलाकर, तत्कालीन समस्याओं रोजगार, महंगाई को केंद्र में रखकर और उसके समाधान की आस जगाने के साथ ही देश की राजनीति में पहले से मौजूद जाति-धर्म के मुद्दों को भी हर सियासतदार पकड़ कर रखना चाहता है। राजनीतिक पार्टियां कोई भी चूक करने के मूड में नहीं है, जिससे सत्ता दूसरे के पास चली जाए। आलम कुछ ऐसा है कि ‛अबके बिछड़े तो फिर ख्यालों में मिले, जैसे सूखे हुए फूल किताबों में मिले’ यानी कोई भी किताबों का पन्ना बनकर नहीं रहना चाहता, बल्कि कुर्सी पर किसी भी जोड़-जुगत से काबिज हो फिलहाल बस सत्ता चाहता है।
■ संपादकीय

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