‘सब्दै ही मुक्ता भया, सब्दै समझै प्राण’ - Kashi Patrika

‘सब्दै ही मुक्ता भया, सब्दै समझै प्राण’


शब्द को जान लो, तो जीवन की सारी समस्यायें सुलझ जाती हैं, क्योंकि जब शब्द से जुड़ जाते हो, तब ओंकार से जुड़ जाते हो... 

जब शब्द से जुड़ जाते हो, जब ओंकार से जुड़ जाते हो, तो गोविंद से जुड़ जाते हो। तब तुम सही मायने में थिर हो जाते हो ‘सब्दै भागा शोक। फिर काहे की चिंता? फिर काहे का शोक? कहते है अष्टावक्र जनक से-

‘आपद: संपद: काले दैवादैवेति निश्चयी।
तृप्त: स्वस्थेन्द्रियों नित्यम न शोचति न कांक्षति।’

यह मुझे पता है। आपदा हो, संपदा हो, दैवयोग से अपने समय पर आती है। सब उस गोविंद का खेल है। यह जानकर मैं थिर हो गया हूं। अब शोक नहीं करता, अब चिंता नहीं करता।

‘सब्दै ही मुक्ता भया, सब्दै समझै प्राण।’

इस शब्द से जुड़कर, इस ओंकार से जुड़कर ही मुक्ति मिलती है। तब तक मुक्ति की केवल बाते हैं। रज्जब साहब दादू साहब के शिष्य हैं। कहते हैं-

‘नाम बिना नाहीं निसतारा कबहूं न पहुंचे पार।’

बिना नाम के मुक्ति सिंभव नहीं है। ओंकार मुक्ति कि द्वार है।

‘सब्दै ही मुक्ति भया, सब्दै समझै प्राण।’

शब्द से ही जीवन के रहस्य समझ में आते हैं।

‘सब्दै ही सूझे सबै, सब्दै सुरझै जाण।।’

शब्द को जान लो, तो जीवन का सारा रहस्य समझ में आ जाता है। शब्द को जान लो, तो जीवन की सारी समस्यायें सुलझ जाती हैं। शब्द ही सारी समस्याओं का समाधान है। यही सहज योग है।
■ ओशो 

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