काशी सत्संग: त्याग में ही सुख है - Kashi Patrika

काशी सत्संग: त्याग में ही सुख है


एक संत अपने शिष्य के साथ धर्म प्रचार करने के लिए गांव-गांव घूमते थे। एक गांव में पहुंचे और एक कुटिया बनाकर उसमें रहने लगे। नगरवासी उनका बहुत सम्मान करते और उन्हें भोजन इत्यादि देने के साथ-साथ दान-दक्षिणा भी दे दिया करते थे।
एक दिन अचानक संत अपने शिष्य से कहने लगे, “बेटा! यहां बहुत दिन रह लिए, चलो अब कहीं और रहा जाए।” शिष्य ने पूछा- क्यों गुरुदेव? यहां तो बहुत चढ़ावा आता है। क्यों न कुछ दिन बाद चले, तब तक और चढ़ावा इकट्ठा हो जाएगा।
संत ने जवाब दिया- बेटा, हमें धन और वस्तुओं के संग्रह से क्या लेना-देना, हमें तो त्याग के रास्ते पर चलना है। गुरु की आज्ञा सुनकर शिष्य ने सब कुछ जो था, वो उसी कुटिया में छोड़ दिया। लेकिन फिर भी चलते हुए उसने गुरु से चोरी-छिपे कुछ सिक्के अपनी झोली में डाल लिए।
दोनों अगले गांव की ओर चल दिए। लेकिन वह जिस गांव की ओर जाना चाहते थे। उससे एक नदी पार करके जाना पड़ता था। नदी के तट पर पहुंचे तो, नाव वाले ने कहा, “मैं नदी पार करने के 2 रुपये लेता हूं। आप लोग साधू-महात्मा हैं, इसलिए आपसे एक-एक रुपया ही लूंगा।”
संत के पास पैसे नहीं थे, इसलिए वे आसन लगा कर बैठ गए। शिष्य के पास पैसे थे, जो वह गुरु की आज्ञा के विरुद्ध चोरी से लाया था। बिना कुछ कहे वह भी गुरु जी के साथ बैठ गया। यह देखने के लिए कि गुरुजी बिना पैसों के नदी पार कैसे करते हैं? गुरु जी इस आस में बैठे थे कि या तो वह नाव वाला उन्हें बिना पैसों के नदी पार करवा देगा, या कोई भगत आ जाए, जो उन्हें दान-दक्षिणा दे दे, ताकि वे उस से नाव वाले का भुगतान कर सके। बैठे-बैठे शाम हो गई, लेकिन गुरु जी का न तो कोई शिष्य आया, ना नाव वाले ने बिना पैसे के नदी पार करवाने के लिए राजी हुआ।
नाव वाले ने उन्हें डराते हुए कहा, कि यहां रात को रुकना खतरे से खाली नहीं है। बेहतर यही होगा कि आप यहां से या तो नदी पार करके गतव्य स्थान पर चले जाएं या जहां से आए थे, वहीं चले जाए। खतरे के नाम से शिष्य घबरा गया और उसने झट से अपने झोली से 2 सिक्के निकाल कर, नाव वाले को दे दिए। बदले में नाव वाले ने उन्हें नदी पार पहुंचा दिया।
गुरु जी ने शिष्य से पूछा, तुमने गांव का चढ़ावा क्यों ले लिया। मैंने तुम्हें सब कुछ छोड़ देने के लिए कहा था? शिष्य बोला, गुरुजी! यदि वह सिक्के मेरी झोली में ना होते, तो संभवता हम दोनों कष्ट में पड़ जाते। संत ने मुस्कुराकर कहा, “जब तक सिक्के तुम्हारी झोली में थे, तब तक हम कष्ट में ही थे। जैसे ही तुमने उन्हें बाहर निकाला हमारा काम बन गया। इसी लिए त्याग में ही सुख है। यह कहकर संत ने बाकी के सिक्के किसी गरीब को दान कर दिए और आगे चल पड़े।
ऊं तत्सत... 

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