“जो हर ले वह हरि” - Kashi Patrika

“जो हर ले वह हरि”

मनुष्य के चारों ओर परमात्मा सदैव मौजूद है। वह इसी ताक में रहता है कि कब तुमसे कोई चूक हो और वह तुम्हारे अंतर में प्रवेश करे। लेकिन, तुम्हारी प्याली इतनी भरी है कि कही कोई जगह शेष नहीं है...

परमात्मा रूपी बादल तो तुम्हें अभी भी घेरे खड़ी है। उसके लोक में तो सदा ही सावन है। उसके लोक में तो कभी सावन के अतिरिक्त और कोई ऋतु होती ही नहीं। वहां सदा एक ही ऋतु है- सदैव हरापन, सदा जीवन, सदा यौवन! वहां पतझड़ कभी नहीं आता।

परमात्मा तो केवल वसंत को ही जानता है, जैसे तुम केवल पतझड़ को ही जानते हो। जैसे तुम केवल मृत्यु को ही जानते हो, परमात्मा केवल अमृत को ही जानता है। परमात्मा तुमसे ठीक विपरीत छोर पर खड़ा है और चारों तरफ से तुम्हें घेरे हुए है कि कभी मौका मिल जाए, कभी तुमसे भूल-चूक हो जाए। द्वार-दरवाजे खुले छूट जाए। वह चोर की तरह रात को भी तुम्हारे चारों तरफ खड़ा रहता है। इसलिये तो हिंदुओ ने उसको एक नाम दिया है-हरि ! हरि का अर्थ होता है चोर। जो हर ले, वह हरि ! जो झपट ले, जो मौका पा जाए तो तुम्हें ले उड़े-वह हरि!
परमात्मा तुम्हारे चारों ओर मौजूद है और इसी ताक में है कि कभी मौका मिल जाए! कभी तुम द्वार पर सांकल लगाना भूल जाओ। कोई खिड़की खुली छूट जाए, तो वह भीतर घुस आए। मगर तुम बिलकुल भरे पड़े हो, रंच मात्र जगह नहीँ छोड़ी तुमने। तुम जितना खाली होगे, तो उतना ही गहरा परमात्मा तुम में उतरेगा। लेकिन तुम खाली कैसे होओगे? तुम्हारा कृत्य पर से भरोसा छूट जाए, तब तुम खाली हो जाओ।
■ ओशो

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