साहित्यिक झरोखा: कबीर के ‛राम’ या राम के ‛कबीर’ - Kashi Patrika

साहित्यिक झरोखा: कबीर के ‛राम’ या राम के ‛कबीर’


'हरिमोर पिउ, मैं राम की  बहुरिया... 'हरि जननी मैं बालक तोरा... 
सरल शब्द रचना और बोली में आत्मीयता से जो लौकिक और अलौकिक बात कही जा सकती हो वो विरले ही कठिन वेदों और मंत्रोचार से आम जन तक पहुंचाई जा सकती हैं। भारतीय साहित्य ने भी एक समय ऐसा देखा जब जनसामान्य की भाषा ने साहित्य पर एकछत्र राज किया, यह समय था भारतीय साहित्य में भक्तिकालीन युग में ज्ञानाश्रयी-निर्गुण शाखा की काव्यधारा के प्रवर्तक कबीरदास का।

कबीर या भगत कबीर 15वीं सदी के भारतीय रहस्यवादी कवि और संत थे। कबीर पढ़ेलिखे नहीं थे। वो स्वयं कहते हैं `मसि कागद छूवो नहीं, कलम गही नहिं हाथ।' कहते हैं आम जीवन में अनुभव सबसे बड़ा ज्ञान होता हैं और जिसने अनुभव से एक बार सीखना सीख लिया हो उसके लिए जीवन सुगम हो जाता हैं। कबीर भी एक शिक्षक, साहित्यकार, और समाजसुधारक कम ही जान पड़ते हैं और वह एक जीवन अनुभव के समान हमारे समक्ष उपस्थित हो अपनी बात रखते हैं। एक ओर जहां वह अपने कर्म का निर्वाह करते हुए हमें कर्मयोग की शिक्षा देते हैं तो दूसरी ओर परमसत्ता और परमात्मा का अंश हम सब में व्याप्त हैं इसका भान कराने से भी नहीं चूकते। उन्होंने अपने समय में व्याप्त धर्म के सभी आडम्बरों का खुलकर विरोध किया। और जनसामान्य को ह्रदय स्थल में ईश्वर के निवास का ज्ञान कराया।
'माला फेरत जुग गया फिरा ना मन का फेर
कर का मनका छोड़ दे मन का मन का फेर....' 

कहते हैं कबीर "नीमा' और "नीरु' की संतान थे, जिन्होंने इनका पालन- पोषण किया था। कहा जाता है कि नीरु जुलाहे को यह बच्चा लहरतारा ताल पर पड़ा मिला, जिसे वह अपने घर ले आया और उसका पालन-पोषण किया। बाद में यही बालक कबीर कहलाया। 'काशी में परगट भये , रामानंद चेताये। कबीर के गुरु रामानंद हैं।जीविकोपार्जन के लिए कबीर जुलाहे का काम करते थे। 

कबीर के राम
कबीर के राम तो अगम हैं और संसार के कण-कण में विराजते हैं। 'व्यापक ब्रह्म सबनिमैं एकै, को पंडित को जोगी। रावण-राव कवनसूं कवन वेद को रोगी।' कबीर राम की किसी खास रूपाकृति की कल्पना नहीं करते, राम के साथ उनका प्रेम उनकी अलौकिक और महिमाशाली सत्ता को एक क्षण भी भुलाए बगैर सहज प्रेमपरक मानवीय संबंधों के धरातल पर प्रतिष्ठित है। ‘प्रेम जगावै विरह को, विरह जगावै पीउ, पीउ जगावै जीव को, जोइ पीउ सोई जीउ'. 

कबीर की वाणी का संग्रह ‛बीजक' के नाम से प्रसिद्ध है। इसके तीन भाग हैं- रमैनी, सबद और सारवी। 

119 वर्ष की अवस्था में मगहर में कबीर का देहांत हो गया। कबीरदास जी का व्यक्तित्व संत कवियों में अद्वितीय है। हिन्दी साहित्य के 1200 वर्षों के इतिहास में गोस्वामी तुलसीदास जी के अतिरिक्त इतना प्रतिभाशाली व्यक्तित्व किसी कवि का नहीं है।

झीनी झीनी बीनी चदरिया ॥
काहे कै ताना काहे कै भरनी,
कौन तार से बीनी चदरिया ॥
इडा पिङ्गला ताना भरनी,
सुखमन तार से बीनी चदरिया ॥
आठ कँवल दल चरखा डोलै,
पाँच तत्त्व गुन तीनी चदरिया ॥
साँ को सियत मास दस लागे,
ठोंक ठोंक कै बीनी चदरिया ॥
सो चादर सुर नर मुनि ओढी,
ओढि कै मैली कीनी चदरिया ॥
दास कबीर जतन करि ओढी,
ज्यों कीं त्यों धर दीनी चदरिया ॥ 

मोको कहां ढूँढे रे बन्दे
मैं तो तेरे पास में
ना तीरथ मे ना मूरत में
ना एकान्त निवास में
ना मंदिर में ना मस्जिद में
ना काबे कैलास में
मैं तो तेरे पास में बन्दे
मैं तो तेरे पास में
ना मैं जप में ना मैं तप में
ना मैं बरत उपास में
ना मैं किरिया करम में रहता
नहिं जोग सन्यास में
नहिं प्राण में नहिं पिंड में
ना ब्रह्याण्ड आकाश में
ना मैं प्रकुति प्रवार गुफा में
नहिं स्वांसों की स्वांस में
खोजि होए तुरत मिल जाउं
इक पल की तालास में
कहत कबीर सुनो भई साधो
मैं तो हूं विश्वास में
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