अपनी आर्थिक-सामाजिक-कानूनी स्थिति में बदलाव की कोशिश करता दलित-पिछड़ा समाज वक्त-बेवक्त सड़क पर उतरता रहा है। लेकिन एक बार फिर सवर्णों में नाराजगी बढ़ रही है। परिणामतः वह मुखर हो रहा है और सड़कों पर उतरने को मजबूर है। इससे पहले वीपी सिंह सरकार के विरोध में सवर्णों का गुस्सा फूटा था। जब-तब दलित-पिछड़ों को लेकर सवाल उठाए जाते रहे हैं, लेकिन प्रश्न तो सवर्णों को लेकर भी उठने चाहिए। कोई भी सरकार सवर्णों की बात क्यों नहीं करती?
जीवन की मूलभूत आवश्यकता रोटी, कपड़ा, मकान, शिक्षा, रोजगार पर क्या उसका हक नहीं है? उस पर कानूनी शिकंजा भी उसी के लिए क्यों? केंद्र में सत्तासीन भाजपा पर तो सवर्णों की ही पार्टी होने के आरोप लगते रहे हैं, फिर वह अन्य वर्गों की चिंता में उनकी अनदेखी क्यों कर रही है?
बहरहाल, पहली बात तो यह कि अगर सरकार देश में व्यवस्था दुरुस्त रहे, रोजी-रोजगार की समस्या न हो तो लोगों को आरक्षण की आवश्यकता न पड़े। तिस पर रही बात सामाजिक कुरीतियों की, तो इसे हवा भी तो समय-समय पर देश की राजनीति ही देता रहा है। अब बात कानूनी चश्मे की करें, तो विभिन्न मुद्दों को लेकर बने कानून का फायदा ज्यादातर वे ही उठाते दिखेंगे जो पहले से मजबूत हों। गरीब-लाचार लोगों को इसका फायदा लगभग नगण्य ही मिलता है। दहेज सम्बंधी कानूनों का ही उदाहरण लें, तो ज्यादातर दुरुपयोग की बात ही सामने आई है, फिर एससी/एसटी एक्ट में भी कानून के गलत उपयोग होने से नकारा नहीं जा सकता। किसी भी एक वर्ग की पूरी तरह अनदेखी होने पर लोगों में फासले बढ़ेंगे, इसलिए समस्या का समाधान करते समय उस समय और वर्तमान परिस्थितियों में अंतर पर गौर करना भी जरूरी है। सरकारें चाहे केंद्र की हो या राज्य की समस्याओं की जमीनी स्थिति समझने का प्रयास करने की बजाय अपना फायदा देखती है। ओबीसी समुदायों के दावों पर गौर करें, तो उनकी संख्या कुल आबादी के 50 फीसदी से भी ज्यादा है। यानी सवर्ण संख्या में मात खा जाते हैं, इसलिए उनकी समस्याओं से किसी का कोई सरोकार नहीं दिखता!
कुल मिलाकर, राजनीतिक दल सिर्फ अपने-अपने वोट बैंक को देखते हुए जाति-धर्म की जरूरत पर गौर करते हैं। जब तक ऐसा होता रहेगा, जनता कभी पिछड़ा, कभी दलित, कभी मुस्लिम बनकर सड़क पर उतरती रहेगी। अबकी सवर्ण के रूप में इसका गुस्सा फूटा है। और विरोध भले एससी/एसटी ऐक्ट का हो लेकिन सबके मूल में जनता की जरूरतें रोटी-कपड़ा-मकान-शिक्षा तक ही सिमटी है।
■ संपादकीय
जीवन की मूलभूत आवश्यकता रोटी, कपड़ा, मकान, शिक्षा, रोजगार पर क्या उसका हक नहीं है? उस पर कानूनी शिकंजा भी उसी के लिए क्यों? केंद्र में सत्तासीन भाजपा पर तो सवर्णों की ही पार्टी होने के आरोप लगते रहे हैं, फिर वह अन्य वर्गों की चिंता में उनकी अनदेखी क्यों कर रही है?
बहरहाल, पहली बात तो यह कि अगर सरकार देश में व्यवस्था दुरुस्त रहे, रोजी-रोजगार की समस्या न हो तो लोगों को आरक्षण की आवश्यकता न पड़े। तिस पर रही बात सामाजिक कुरीतियों की, तो इसे हवा भी तो समय-समय पर देश की राजनीति ही देता रहा है। अब बात कानूनी चश्मे की करें, तो विभिन्न मुद्दों को लेकर बने कानून का फायदा ज्यादातर वे ही उठाते दिखेंगे जो पहले से मजबूत हों। गरीब-लाचार लोगों को इसका फायदा लगभग नगण्य ही मिलता है। दहेज सम्बंधी कानूनों का ही उदाहरण लें, तो ज्यादातर दुरुपयोग की बात ही सामने आई है, फिर एससी/एसटी एक्ट में भी कानून के गलत उपयोग होने से नकारा नहीं जा सकता। किसी भी एक वर्ग की पूरी तरह अनदेखी होने पर लोगों में फासले बढ़ेंगे, इसलिए समस्या का समाधान करते समय उस समय और वर्तमान परिस्थितियों में अंतर पर गौर करना भी जरूरी है। सरकारें चाहे केंद्र की हो या राज्य की समस्याओं की जमीनी स्थिति समझने का प्रयास करने की बजाय अपना फायदा देखती है। ओबीसी समुदायों के दावों पर गौर करें, तो उनकी संख्या कुल आबादी के 50 फीसदी से भी ज्यादा है। यानी सवर्ण संख्या में मात खा जाते हैं, इसलिए उनकी समस्याओं से किसी का कोई सरोकार नहीं दिखता!
कुल मिलाकर, राजनीतिक दल सिर्फ अपने-अपने वोट बैंक को देखते हुए जाति-धर्म की जरूरत पर गौर करते हैं। जब तक ऐसा होता रहेगा, जनता कभी पिछड़ा, कभी दलित, कभी मुस्लिम बनकर सड़क पर उतरती रहेगी। अबकी सवर्ण के रूप में इसका गुस्सा फूटा है। और विरोध भले एससी/एसटी ऐक्ट का हो लेकिन सबके मूल में जनता की जरूरतें रोटी-कपड़ा-मकान-शिक्षा तक ही सिमटी है।
■ संपादकीय
No comments:
Post a Comment