मुद्दा और राजनीति कोई नयापन शायद ही परोसती है। थाली में जो मुद्दे २०१४ के चुनाव में थे २०१९ के चुनाव में भी वो ही मुद्दे परोसे जाएंगे। जनता की भूख भी वैसे ही बनी हुई है। रोज़गार , शिक्षा , स्वास्थ , युवा , किसान ,कारोवारी को क्या मिला इस पर बहस का बाज़ार गरमाने लगा है। विपक्ष की नींव कमज़ोर तो है लेकिन मुद्दों की कोई कमी नहीं है उनके पास।
सोचने वाली बात यह है के जिन मुद्दों को लेकर पिछले चुनाव में भाजपा ने कांग्रेस की कमर तोड़ी थी , पेट्रोल , गैस , रोज़गार, महिला सुरक्षा , कश्मीर में आतंकवाद, ज्यों के त्यों बने हैं। लेक़िन भ्रष्टाचार पर अंकुश लगाने में सरकार कामयाव होती नज़र तो आती है।
सरकार ने अपनी छवि साफ़ रखते हुए जनता को पिछली सरकार के घोटालो और भ्रष्टाचार से होने वाले नुकसान से तो उबारा ही है पर यह सीधे तौर पर जनता के घर कोई राहत नहीं पहुँचाती है। उसकी जेब को तो रसोई गैस,पेट्रोल-डीज़ल ही प्रभावित करती है।
जैसा के प्रधानमंत्री ने कहा था के २०१९ में वह अपनी सरकार का रिपोर्ट कार्ड जनता के सामने प्रस्तुत करेंगे और उनसे किये वादों का लेखा जोखा बताएंगे। सब अपने-अपने प्रश्न के उत्तर मिलने के लिए २०१९ की रैलियों के इंतज़ार में हैं।
सरकार के महज़ इन चार सालों में ही कई योजनाएं शुरू की है जो उमीद्द बाँधती तो है , विश्वस्तर पर भी देश का मान बढ़ा है। सरकारीतंत्र अभी भी लचर ही है।
भारत को बंद करने के लिए विपक्ष की तत्परता कोई नयी बात नहीं यह किसी के हार-जीत को नहीं बताता , यह एक राजनीतिक चलन है भारत की राजनीति में जिसको बस विपक्ष के नाम से जाना जा सकता है जो की सत्ता से बाहर रहने की प्रतिक्रिया है न के सरकार की कार्यप्रणाली के नाप-जोख़ के बाद ऊपजी जनता के प्रति चिंता।
-अदिति -
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