मनुष्य बचपन से ही रिश्ते-संबन्धों को स्वार्थ की कसौटी पर परखना सीख जाता है। मित्रता जैसे पवित्र रिश्ते में भी वह यहीं ढूंढता है और अंततः अकेला रह जाता है...
किसको तुम अपना मित्र कहते हो? क्योंकि सभी अपने स्वार्थों के लिए जी रहे हैं! जिसको तुम मित्र कहते हो, वह भी अपने स्वार्थ के लिये तुमसे जुड़े हैं, और तुम भी अपने स्वार्थ के लिये उनसे जुड़े हो! अगर मित्र वक्त पर काम न आये, तुम्हारी अपेक्षा के अनुरूप तो तुम मित्रता तोड़ देते हो!
बुद्धिमान लोग कहते हैं मित्र तो वही, जो वक्त पर काम आये! लेकिन क्यों?वक्त पर काम आने का मतलब है कि जब मेरे स्वार्थ की जरूरत हो, तब वह सेवा को तत्पर रहे। लेकिन दूसरा भी यही सोचता है कि जब तुम वक्त पर काम आओ, तब मित्र हो! तुम काम में लाना चाहते हो दूसरे को, यह कैसी मित्रता है? यह तो मित्रता के नाम पर एक- दूसरे का शोषण करने जैसा है।
तुम्हारे सब संबंध स्वार्थ के हैं।
इतना ध्यान रहे कि तुम्हारे पास सब कुछ हो पर कोई ऐसा न हो, जिसके साथ तुम उसे बाँट सको, शेयर कर सको, कोई ह्रदय के इतना करीब नहीं की, जिससे अपने सुख-दुःख, भाव-आवेग बाँट सको, तो तुम उस कुँए के सामान हो, जिसमें से कोई एक बाल्टी पानी निकलने वाला भी नहीं है ।
जल्दी ही तुम सड़ोगे, धीरे-धीरे तुम्हारे आनंद के स्रोत बंद हो जायेंगे, तुम एक गंदे पानी के डावरे होकर रह जाओगे।
इसलिए, निस्वार्थ मित्रता जरूरी है। यह संबंध तुम्हें जीवंत रखते हैं। तुम्हारे स्रोत खुले रहते हैं।
■ ओशो
किसको तुम अपना मित्र कहते हो? क्योंकि सभी अपने स्वार्थों के लिए जी रहे हैं! जिसको तुम मित्र कहते हो, वह भी अपने स्वार्थ के लिये तुमसे जुड़े हैं, और तुम भी अपने स्वार्थ के लिये उनसे जुड़े हो! अगर मित्र वक्त पर काम न आये, तुम्हारी अपेक्षा के अनुरूप तो तुम मित्रता तोड़ देते हो!
बुद्धिमान लोग कहते हैं मित्र तो वही, जो वक्त पर काम आये! लेकिन क्यों?वक्त पर काम आने का मतलब है कि जब मेरे स्वार्थ की जरूरत हो, तब वह सेवा को तत्पर रहे। लेकिन दूसरा भी यही सोचता है कि जब तुम वक्त पर काम आओ, तब मित्र हो! तुम काम में लाना चाहते हो दूसरे को, यह कैसी मित्रता है? यह तो मित्रता के नाम पर एक- दूसरे का शोषण करने जैसा है।
तुम्हारे सब संबंध स्वार्थ के हैं।
इतना ध्यान रहे कि तुम्हारे पास सब कुछ हो पर कोई ऐसा न हो, जिसके साथ तुम उसे बाँट सको, शेयर कर सको, कोई ह्रदय के इतना करीब नहीं की, जिससे अपने सुख-दुःख, भाव-आवेग बाँट सको, तो तुम उस कुँए के सामान हो, जिसमें से कोई एक बाल्टी पानी निकलने वाला भी नहीं है ।
जल्दी ही तुम सड़ोगे, धीरे-धीरे तुम्हारे आनंद के स्रोत बंद हो जायेंगे, तुम एक गंदे पानी के डावरे होकर रह जाओगे।
इसलिए, निस्वार्थ मित्रता जरूरी है। यह संबंध तुम्हें जीवंत रखते हैं। तुम्हारे स्रोत खुले रहते हैं।
■ ओशो
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