इश्क के मराहिल में वो भी वक्त आता है,
आफतें बरसती हैं दिल सुकून पाता है।
आजमाइशें ऐ दिल सख्त ही सही लेकिन,
ये नसीब क्या कम है कोई आजमाता है।
उम्र जितनी बढ़ती है और घटती जाती है,
साँस जो भी आता है लाश बन के जाता है।
आबलों का शिकवा क्या ठोकरों का गम कैसा,
आदमी मोहब्बत में सब को भूल जाता है।
कार-जार-ए-हस्ती में इज्ज-ओ-जाह की दौलत,
भीक भी नहीं मिलती आदमी कमाता है।
अपनी कब्र में तन्हा आज तक गया है कौन,
दफ्तर-ए-अमल ‘आमिर’ साथ साथ जाता है।
■ आमिर उस्मानी
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