November 2018 - Kashi Patrika

“संन्यास सिर्फ शुरुआत है”

November 30, 2018 0
“संन्यास सिर्फ शुरुआत है”
संन्यास तो सिर्फ जाने की तैयारी है। संन्यास तो इस बात की घोषणा है कि मैं जाने को तैयार हूं। फिर तीन मार्ग हो जाते हैं। कोई ज्ञान पर जाएगा, कोई भक्ति पर, कोई कर्म पर। संन्यास तो सिर्फ जाने की तैयारी है...


तुम पूछते हो क्या सन्यास भक्ति की शुरुआत है? मैं कहता हूं सन्यास सिर्फ शुरुआत है। न भक्ति की न ज्ञान की, न कर्म की। संन्यास सिर्फ शुरुआत है। फिर तीन मार्ग हो जाते हैं। कोई ज्ञान पर जाएगा, कोई भक्ति पर, कोई कर्म पर। संन्यास तो सिर्फ जाने की तैयारी है। संन्यास तो इस बात की घोषणा है कि मैं जाने को तैयार हूं। इसके बाद मार्ग अलग हो जाएंगे। तीन तरह के लोग हैं- कुछ हैं जो कर्मोन्मुख हैं। वे कृत्य के माध्यम से परमात्मा तक पहुंचेंगे। उनके पास बड़ी ऊर्जा है। उनसे तुम कहो कि आंख बंद करके बैठ जाओ और ध्यान करो, तो उन्हें बड़ी अड़चन हो जाएगी। छोटे बच्चे को कहो कि आंख बंद करके ध्यान करो, वह बैठ भी जाएगा आंख बंद करके तो हिलेगा-डुलेगा, हाथ-पैर चलाएगा, करवटें बदलेगा, इधर खुजलाएगा, उधर खुजलाएगा, बीच-बीच में आंख खोलकर देखेगा। जिनके पास बच्चों की तरह सामान्य से ज्यादा ऊर्जा है, उनके लिए कृत्य ही मार्ग बनेगा। फर्क इतना ही हो जाएगा कि अब कृत्य उनका नहीं होगा, परमात्मा का होगा, वे उपकरण होंगे। यही भेद होगा संन्यासी और संसारी में। काम तो दोनों करेंगे, संन्यासी भी करेगा, संसारी भी करेगा। संसारी करता है इस भाव से कि मैं कर्ता; और संन्यासी करता है इस भाव से कि प्रभु कर्ता है, मैं सिर्फ उपकरण, उसके हाथ का हथियार। सन्यासी के उसी समर्पण भाव में क्रांति घटती है।
दूसरा मार्ग भक्ति का है। जैसे स्त्रियाँ हैं, या बहुत से भावुक पुरुष हैं, जिनकी सारी ऊर्जा हृदय के पास संगृहीत है, जिनके हृदय के पास सारी धड़कन है। न तो देह की शक्ति में उनका प्रवाह है और न मसितष्क के विचारों में उनका प्रवाह है, उनका सारा जीवन केंद्रति है भाव के पास, प्रीति उनका द्वार है, वे भक्ति भाव यानी प्रभु के गीत, स्तुति, प्रार्थना-पूजा की विधियों से परमात्मा तक पहुंच सकेंगे।
फिर, जिसकी सारी ऊर्जा मसितष्क में इकट्ठी है, संगृहीत है, वे चिंतन-मनन-निदिध्यासन से परमात्मा तक पहुंचने का मार्ग तलाश सकेंगे। मूल यह है कि संन्यास शुरुआत है परमात्मा की तरफ जाने की। तुमने संकल्प किया कि अब जाता हूं, यात्रा पर निकलूंगा, तुमने अपना बोरिया-बिस्तर बांध लिया, तुम आकर गांव के द्वार पर खड़े हो गए। संन्यास महाप्रस्थान है। अब तीन रास्ते निकलेंगे। जिस दिन तुमने तय कर लिया कि जाना है उस यात्रा पर, प्रभु को खोजना है, फिर तीन रास्ते निकलेंगे। फिर संन्यासी तीन हिस्सों में विभाजित हो जाएंगे। इन तीनों का मिलन होगा अंतिम दिन फिर, लेकिन बीच में कहीं मिलन न होगा। इनके रास्ते बीच में कभी नहीं कटेंगे।
जो भक्ति के मार्ग से गया है, उसे पता ही नहीं चलेगा कि ज्ञानी का रास्ता कहां है, और ज्ञानी कहां खो गया है। जो कर्म के मार्ग से गया है, उसे भक्ति की भाषा समझ में नहीं आएगी। जो ज्ञान के मार्ग से गया है, उसे भी कर्म और भक्ति दुरूह मालूम पड़ेंगी, असंभव मालूम पड़ेंगी। भीतर उसके यही ख्याल होगा कि ये लोग भटक गए, मैं पहुंच रहा हूं। तीनों जानेंगे कि मैं पहुंच रहा हूं, बाकी दो भटक गए। क्योंकि बाकी दो दिखते ही नहीं रास्ते पर कहीं। लेकिन अंतिम घड़ी में फिर मिलन है। प्रस्थान के पूर्व तीनों एक जगह खड़े होते हैं, और जब यात्रा पूरी हो गई तब तीनों फिर एक शिखर पर पहुंच जाते हैं।
■ ओशो

काशी सत्संग: कलह से दरिद्रता

November 30, 2018 0
काशी सत्संग: कलह से दरिद्रता
एक बहुत धनवान व्यक्ति के चार बेटे थे। सेठ ने अपने चारों बेटों का विवाह कर दिया, लेकिन बहुओं का स्वभाव उग्र और असहिष्णु निकला। इस कारण वे आपस में रोज ही लड़ती-झगड़तीं। अब सेठ के घर दिन-रात गृह-कलह मचा रहता। इससे खिन्न होकर लक्ष्मीजी ने वहां से चले जाने की ठानी। रात को लक्ष्मीजी ने सेठ को स्वप्न में दर्शन दिया और कहा, “यह कलह मुझसे नहीं देखा जाता। जहां ऐसे लड़ने-झगड़ने वाले लोग रहते हैं, वहां मैं नहीं रह सकती। मैं तुम्हारा घर छोड़कर जा रही हूं।”
सेठ बहुत गिड़गिड़ाकर रोने लगा, लक्ष्मीजी के पैरों से लिपट गया और कहा,“मां! मैं आपका अनन्य भक्त रहा हूं। मुझे छोड़कर आप न जाएं।” लक्ष्मीजी को उस पर दया आ गई और कहा- “कलह के स्थान पर मेरा ठहर सकना तो संभव नहीं, लेकिन तुम मुझसे एक वरदान मांग सकते हो।”
धनिक सेठ ने कहा- “अच्छा मां यही सही। आप यह वरदान दें कि मेरे घर के सभी सदस्य आपस में मिलजुल कर प्रेम से रहें।” लक्ष्मीजी ने ‘एवमस्तु’ कहा और वहां से चली गई। दूसरे दिन से ही सेठ के बेटे-बहू प्रेमपूर्वक रहने लगे और मिलजुल कर सब काम करने लगे।
एक दिन धनिक सेठ ने स्वप्न में देखा कि लक्ष्मीजी उसके घर में वापस आ गई हैं। उसने उन्हें प्रणाम किया और पुनः पधारने के लिए धन्यवाद दिया। लक्ष्मीजी ने कहा- “इसमें धन्यवाद की कोई बात नहीं है। मेरा उसमें कुछ अनुग्रह भी नहीं है। जहां एकता होती है और प्रेम रहता है, वहां तो मैं बिना बुलाए ही जा पहुंचती हूं।” मित्रों, जो लोग दरिद्रता से बचना चाहते हैं और घर में मां लक्ष्मी का निवास चाहते हैं, उन्हें अपने घर में कलह की परिस्थितियां उत्पन्न नहीं होने देनी चाहिए।
ऊं तत्सत...

काशी सत्संग: माया की लीला

November 29, 2018 0
काशी सत्संग: माया की लीला
श्रीहरि के परम भक्त देवर्षि नारद के मन में एक बार जिज्ञासा जगी कि इस माया की लीला आखिर है क्या? नारद जी ने अपनी यह जिज्ञासा भगवान श्रीहरि के समक्ष रखी। भगवान विष्णु मुस्कराए, फिर नारद जी से कहा- “उत्तर के लिए उचित समय की प्रतीक्षा करो।”
एक दिन अनायास भगवान विष्णु ने उनसे कहा- “देवर्षि आज हमारे साथ धरती पर भ्रमण के लिए चलो।” चलते हुए वे धरती के एक वन प्रांत में पहुंचे। बड़ा सुंदर स्थान था। इस स्थान के पास ही एक सुंदर सरोवर था। श्रीहरि की प्रेरणा और माया के प्रभाव से देवर्षि की इच्छा सरोवर में स्नान करने की हुई। जब देवर्षि सरोवर में स्नान करके बाहर निकले, तो उनका स्वरूप एक सुंदर नवयुवती का था। देवर्षि अपने पूर्व परिचय को भूल चुके थे। उनके इस स्वरूप पर वन में आखेट के लिए आए एक राजकुमार की दृष्टि पड़ी। राजकुमार ने उनके सामने विवाह का प्रस्ताव रखा, जिसे उन्होंने स्वीकार कर लिया। दोनों का विवाह हो गया।
विवाह को एक वर्ष से अधिक समय हो चुका था। इसी बीच उनको एक पुत्र हुआ। एक दिन राजकुमार के मन में आया कि उसी सरोवर तट पर चलते हैं, जहां वह पहली बार अपनी पत्नी से मिला था। पति के साथ पत्नी भी सरोवर की ओर चल पड़ी। सरोवर तट पर पहुंच कर पत्नी के मन में स्नान करने की इच्छा हुई। राजकुमार की पत्नी जब स्नान करके सरोवर से बाहर निकली, तब उसने अपना पूर्व का रूप प्राप्त कर लिया था यानी अब वह नारद के रूप में थी। इधर देर तक राजकुमार की पत्नी सरोवर से बाहर नहीं आई, तो राजकुमार ने उसे तलाशने की हरसंभव कोशिश की, पर सफलता नहीं मिली। आखिरकार राजकुमार रोता-बिलखता वापस अपने भवन लौट आया। इधर देवर्षि नारद ने देखा कि सामने वृक्ष की छांव में भगवान बैठे हुए मुस्करा रहे हैं। जब देवर्षि उनके पास पहुंचे, तो उन्होंने हंसते हुए कहा- “देवर्षि! आपको माया की लीला एवं उसके प्रभाव की अनुभूति हो गई!” देवर्षि को भी ये सारी घटनाएं याद आ गईं थीं। उन्होंने कहा- “हे प्रभु! आपके अनुग्रह से मुझे माया की अनुभूति गई।”
कबीर कहते हैं-
'कबीर' माया जिनि मिले, सौ बरियाँ दे बाँह।
नारद से मुनियर मिले, किसो भरोसौ त्याँह ॥
भावार्थ-कबीर कहते हैं-अरे भाई, यह माया तुम्हारे गले में बाहें डालकर भी सौ-सौ बार बुलाए, तो भी इससे मिलना-जुलना अच्छा नहीं। जब नारद-सरीखे मुनिवर को यह समूचा ही निगल गई, तब इसका विश्वास क्या?
ऊं तत्सत...

भोले भण्डारी- चतुर्थ पाठ

November 29, 2018 0
भोले भण्डारी- चतुर्थ पाठ
'नाच न जाने आंगन टेढ़ा' 

भारतीय जीवन में भाग्य का इतना महत्व है कि इसके बिना आम हिन्दुस्तानी के जीवन की परिकल्पना ही नहीं की जा सकती। मरना-जीना, सुख-दुख, लाभ-हानि, सोना-जागना सभी भाग्य भरोसे ही तो होता है। भारत की मूल अवधारणा के सबसे निकट किसान और उसकी खेती से इस भाग्य का तो चोली- दामन का साथ जोड़ दिया गया है। सच जानिए तो भारत में कृषि भाग्य भरोसे ही है। आदिकाल से इस भाग्य रूपी खेल की इतनी प्रतिस्पर्धा रही है कि सर्वज्ञ भारतीयों ने इसके महत्व पर अनगिनत टिप्पणियां लिखी हैं। इनमें से सबसे महत्वपूर्ण राम मर्मज्ञ गोस्वामी तुलसीदास की टिका हैं, जिसमें वे कहते हैं "तुलसी भरोसे राम के, निर्भय हो के सोए- अनहोनी होनी नहीं, होनी हो सो होए।" अब जब स्वयं तुलसीदास ऐसा कहते हैं तो हम जैसे आम भारतीयों की बिसात ही क्या, जो यह कहे कि भाग्य भरोसे रहना केवल मन की एक दुर्बल अवस्था है। 

मन की यही दुर्बल अवस्था व्यक्ति को कार्य से विमुक्त हो सोने को प्रेरित करते हैं। खेती-किसानी से विरक्त आधुनिक भारतियों जिनमें विदेशी ज्यादा और भारतीयता कम है, का यह सबसे प्रिय कार्य हैं। अब इतना तो मानना ही होगा कि तुलसीदास जी शहरी थे और सोने के बेहद शौकीन थे नहीं! तो वो राम भरोसे होकर काम करने को कहते जो भारत की मूल अवधारणा किसानी के समीप है।एक व्याख्या ये हो सकती है कि तुलसीदास जी खुद के अनुभव को एक ओर रखते हुए आम जन के मनोभाव को कह रहे हो। पर तुलसीदास जी ने अगर ऐसा किया होता तो अपना नाम इसमें बिल्कुल नहीं लिखते। 

माना जाता है काम न करने और विलासिता में लिप्त रहने की आदत ही ने मध्यकाल में राजाओं का बंटाधार किया। मगर जैसा तुलसीदास ने कहा है "होइहि सोइ जो राम रचि राखा- को करि तर्क बढ़ावै साखा" इसके पीछे का भी मुख्य कारण भाग्य ही है। 

विदेशी आक्रांताओं; जो भारत में आए उन्हें अक्सर इतिहासकार कर्मप्रधान मानते हैं। उनके कर्म ही थे कि वो मरुस्थल की खाक छान कर भारत पहुंचे। मगर भारत के भाग्य की परंपरा उन पर ऐसे पड़ी कि यहां उन्होंने कहना शुरू कर दिया "अल्ला मेहरबान तो गधा पहलवान।" अब भाग्य भरोसे अगर गधा पहलवान हो सकता है, तो कर्म करने की आवश्यकता ही क्यों हो!

देश में आज भी शहरी ज्ञान को महत्व दिया जा रहा है और लोकतंत्र के सत्तर सालों में ही स्थिति बद से बदत्तर हो गई है। सही माने तो, आम जन के भाग्य भरोसे रहने की इसी आदत के कारण आज भारत के शहर चूहेदान नजर आते हैं और गांव आज भी शहरी प्रकोप के कारण भाग्य भरोसे नजर आते हैं। 

हालिया एक देसी मोहतरमा लिपस्टिक लागते हुए कह रही थी 'इण्डिया इज सो डर्टी।' मैंने कौतूहलवश पूछा, 'वाई'? उन्होंने एक अजीब सा उत्तर दिया। 'बिकॉज़ इंडियंस आर डर्टी'। 

हां, मोहतरमा "इंडियन खिचड़ी इस रियली डर्टी, बट भारतीय फीलिंग्स आर येट नॉट इक्सप्रेसेड।" 
■ सिद्धार्थ सिंह

मन मौन मगन

November 28, 2018 0
मन मौन मगन
मौन को संवाद बनाओ। एक-दूसरे के साथ बस बैठ जाओ, कुछ मत करो, एक-दूसरे के लिए उपस्थिति मात्र बन जाओ। और शीघ्र ही तुम संवाद का नया ढंग पा लोगे...

मौन होना सीखो। और कम से कम अपने मित्रों के साथ, अपने प्रेमियों के साथ, अपने परिवार के साथ, यहां अपने सहयात्रियों के साथ, कभी- कभार मौन में बैठो। गपशप मत किए चले जाओ, बातचीत मत किए चले जाओ। बात करना बंद करो, और सिर्फ बाहरी ही नहीं-भीतरी बातचीत भी बंद करो। अंतराल बनो। बस बैठ जाओ, कुछ मत करो, एक-दूसरे के लिए उपस्थिति मात्र बन जाओ। और शीघ्र ही तुम संवाद का नया ढंग पा लोगे। और वह सही ढंग है।
कभी-कभार मौन में संवाद स्थापित करना प्रारंभ करो। अपने मित्र का हाथ थामे, मौन बैठ जाओ। बस चांद को देखते, चांद को महसूस करो, और तुम दोनों शांति से इसे महसूस करो। और देखना, संवाद घटेगा--सिर्फ संवाद ही नहीं, बल्कि समागम घटेगा। तुम्हारे हृदय एक लय में धड़कने लगेंगे। तुम एक ही तरह का मौन महसूस करने लगोगे। तुम एक ही तरह का आनंद महसूस करने लगोगे। तुम एक-दूसरे की चेतना पर अतिछादन करने लगोगे। वह समागम है। बिना कुछ कहे तुमने कह दिया, और वहां किसी तरह की गलतफहमी नहीं होगी।
■ ओशो

काशी सत्संग: घृणा के बदले प्रेम

November 28, 2018 0
काशी सत्संग: घृणा के बदले प्रेम

एक बार गुरुजी ने अपने छात्रों को कुछ टमाटर लाने को कहा। लेकिन हर टमाटर को एक सफेद लिफाफे में पैक करना था। और उस लिफाफे पर उस व्यक्ति का नाम लिखना था, जिससे छात्र को घृणा या नाराजगी हो। गुरुजी ने छात्रों को यह हिदायत भी दी कि छात्र को जितने व्यक्तियों से घृणा या नाराजगी हो, उतने टमाटर लिफाफे में रखने हैं।
अब अगले दिन सभी छात्र गुरुजी के निर्देशानुसार सफेद लिफाफों में टमाटर भरकर ले आएं। कुछ के लिफाफे में एक, कुछ में दो, कुछ चार, तो कुछ छात्रों के लिफाफे में 10-12 तक भी टमाटर थे। कुछ छात्र ऐसे भी थे, जिनके पास कोई लिफाफा नहीं था। उन्होंने गुरुजी को बताया कि उन्हें किसी से कोई नाराजगी या घृणा नहीं है।
गुरुजी ने सभी छात्रों को एक-एक कपड़े का थैला देते हुए अपने लिफाफे उसमें रखने के निर्देश दिए। जो छात्र टमाटर नहीं लाए थे, उन्हें गुरुजी ने थैले में गुलाब के फूल दिए। गुरुजी ने आदेश दिया, “ये थैले जिसमें टमाटर या गुलाब हैं, इन्हें अच्छी तरह से बन्द कर दस दिन तक लगातार अपने पास रखना है। जहां भी जाएं थैला अपने साथ रखें।”
एक सप्ताह बाद ही गुरुजी ने पूछा, “क्यों बच्चों थैला साथ है न? कैसा लग रहा है?” टमाटर लिए छात्र दुखी स्वर से बोल उठे, “गुरुजी, टमाटरों की दुर्गन्ध और वजन से परेशानी हो रही है।” जबकि, गुलाब लिए छात्र बोले,“गुरुजी, हमें कोई परेशानी नहीं, थैला हल्का है,और भीनी-भीनी खुशबू भी आ रही है।”
अब गुरुजी ने छात्रों को समझाया, “जिनके पास घृणा, नफरत या नाराजगी रूपी टमाटर थे, वे सभी परेशान हुए, जबकि जिनके पास घृणा-नफरत या नाराजगी नहीं थी, वे सब खुश हैं। यह बिल्कुल वैसा ही है कि तुम अपने हृदय में किसी भी व्यक्ति के लिए क्या रखते हो? यदि घृणा या नाराजगी रखोगे, तो वजन और दुर्गन्ध रूपी परेशानी उठानी पड़ेगी। वहीं यदि किसी से प्रेम-प्यार- अपनापन रखोगे, तो हल्कापन और सुगन्ध रूपी प्रसन्नता मिलेगी।”
गुरुजी ने आगे समझाया, “एक सप्ताह में ही टमाटरों की दुर्गन्ध और वजन से परेशान हो गए, तो सोचो प्रतिदिन तुम जो अपने साथ घृणा और नाराजगी रूपी दुर्गन्ध और वजन रखते हो, तो तुम अपना कितना नुकसान करते हो। तुम्हारा हृदय तो एक सुन्दर बगिया है, जिसमें सुगन्धित और हल्के गुलाब होने चाहिए न कि सड़े हुए दुर्गन्धित और भारी टमाटर। जिनसे भी तुम्हें घृणा या नाराजगी है उन्हें क्षमा दान देकर गले लगाओ। फिर देखो तुम्हारे जीवन में गुलाब रूपी सुगन्ध प्रसन्नता भर देगी।”
ऊं तत्सत...

जीवन क्या है?

November 27, 2018 0
जीवन क्या है?
उत्तर बाहर नहीं है, उत्तर तुम्हारे भीतर है। उत्तर है इस रूपांतरण में कि मेरी आखें बाहर न देखें, भीतर देखें। मेरी आखें दृश्य को न देखें, द्रष्टा को देखें। मैं अपने अंतरतम में खड़ा हो जाऊं, जहां कोई तरंग नहीं उठती; वहीं उत्तर है...
जीवन क्या है, तुम पूछते हो, लेकिन इसका उत्तर तभी हो सकता है, जब जीवन के अतिरिक्त कुछ और भी हो। जीवन ही है, उसके अतिरिक्त कुछ और नहीं है। हम उत्तर किसी और के संदर्भ में दे सकते थे, लेकिन कोई और है नहीं, जीवन ही जीवन है। मेरे लिए जीवन परमात्मा का पर्यायवाची है। लेकिन प्रश्न पूछा है, जिज्ञासा उठी है, तो थोड़ी खोजबीन करें।

उत्तर बाहर नहीं है, उत्तर तुम्हारे भीतर है। उत्तर है इस रूपांतरण में कि मेरी आखें बाहर न देखें, भीतर देखें। मेरी आखें दृश्य को न देखें, द्रष्टा को देखें। मैं अपने अंतरतम में खड़ा हो जाऊं, जहां कोई तरंग नहीं उठती; वहीं उत्तर है, क्योंकि वहीं जीवन अपनी पूरी विभा में प्रकट होता है। वहीं जीवन के सारे फूल खिलते हैं। वहीं जीवन का नाद है-ओंकार है।

जिंदगी, सच है कि झूठ ही लगती अगर अफसाना न होती। वह जो दृश्य का जगत है, एक कहानी है, जो तुमने रची और जो तुमने तुमसे ही कही। एक नाटक है, जिसमें निर्देशक भी तुम, कथा-लेखक भी तुम, अभिनेता भी तुम, मंच भी तुम, मंच पर टंगे पर्दे भी तुम और दर्शक भी तुम। एक सपना है, जो तुम्हारी वासनाओं में उठा और धुएं की तरह जिसने तुम्हें घेर लिया। एक तो जिंदगी यह रही दुकान की, बाजार की, पत्नी-बेटे की, आंकाक्षाओं की। संसार जिसे कहा है। और एक जिंदगी और भी है, वह जो भीतर बैठा देख रहा है। देखता है कि जवान था, अब बूढ़ा हुआ; देखता था कि तमन्नाएं थीं, अब तमन्नाएं न रहीं। देखता था कि बहुत दौड़ा और कहीं न पहुंचा; देखता था, देखता रहा है, सब आया, सब गया, जीवन की धारा बहती रही, बहती रही, लेकिन एक है कुछ भीतर जो नहीं बहता, जो ठहरा है, जो थिर है, जो अडिग है, वह साक्षी। एक जीवन वह है।

बाहर का जीवन भटकाता, भरमाता है। उत्तर के आश्वासन देगा और उत्तर कभी आएगा नहीं। भीतर का जीवन ही उत्तर है। तुम पूछते हो-जीवन क्या है? तुम्हें जानना होगा। तुम्हें अपने भीतर चलना होगा। मैं कोई उत्तर दूं; वह मेरा उत्तर होगा। शांडिल्य कोई उत्तर दें, वह शांडिल्य का उत्तर होगा। वह उन्होंने जाना, तुम्हारे लिए जानकारी होगी। और जानकारी ज्ञान में बाधा बन जाती है। जानकारी से कभी जानना नहीं निकलता। उधारी से कहीं जीवन निकला है!
बजाय तुम बाहर उत्तर खोजो, तुम अपने को भीतर समेटो। शास्त्र कहते हैं, जैसे कछुवा अपने को समेट लेता है भीतर, ऐसे तुम अपने को भीतर समेटो। तुम्हारी आंख भीतर खुले और तुम्हारे कान भीतर सुनें, और तुम्हारे नासापुट भीतर सूंघें, और तुम्हारी जीभ भीतर स्वाद ले, और तुम्हारे हाथ भीतर टटोलें, और तुम्हारी पांचों इंद्रियां अंतर्मुखी हो जाएं; जब तुम्हारी पांचों इंद्रियां भीतर की तरफ चलती हैं, केंद्र की तरफ चलती हैं, तो एक दिन वह अहोभाग्य का क्षण निश्चित आता है जब तुम रोशन हो जाते हो। जब तुम्हारे भीतर रोशनी ही रोशनी होती है। और ऐसी रोशनी जो फिर कभी बुझती नहीं। ऐसी रोशनी जो बुझ ही नहीं सकती। क्योंकि वह रोशनी किसी तेल पर निर्भर नहीं- ‘बिन बाती बिन तेल’। अकारण है। वही जीवन का सार है। वही जीवन का ‘क्या’ है।
उत्तरों में नहीं मिलेगा समाधान। समाधि में समाधान है।
■ ओशो

काशी सत्संग: नास्तिक को यूं मिले प्रभु

November 27, 2018 0
काशी सत्संग: नास्तिक को यूं मिले प्रभु

एक छोटा सा गांव था। गांव में एक वृद्ध साधु थे, जो गांव से थोड़ी सी दूरी पर स्थित श्रीकृष्ण मंदिर में कन्हैया की पूजा-अर्चना करते। और प्रतिदिन सायंकाल नियमपूर्वक अपनी झोपड़ी से निकलकर मंदिर जाते और भगवान के सम्मुख दीपक जलाते।
उसी गांव में एक नास्तिक व्यक्ति भी रहता था। उसने भी प्रतिदिन का नियम बना रखा था ‛दीपक बुझाने का’। जैसे ही साधु भगवान के सामने दीपक जला कर मंदिर से घर लौटते, वह नास्तिक मंदिर में जाकर दीपक को बुझा देता था। साधु ने कई बार उसे समझाने का प्रयत्न किया, पर वह कहता- “भगवान हैं, तो स्वयं ही आकर मुझे दीपक बुझाने से क्यों नहीं रोक देते?”
“बड़ा ही नास्तिक है तू...” कहते हुए साधु भी निकल जाते।
यह क्रम महीनों, वर्षों से चल रहा था। एक दिन की बात है, मौसम कुछ ज्यादा ही खराब था। आंधी-तूफान के साथ मूसलाधार बारिश हो रही थी। बारिश कुछ कम होने का नाम ही नहीं ले रही थी। साधु ने बहुत देर तक मौसम साफ होने की प्रतीक्षा की, और सोचा- ‛इतने तूफान में यदि मैं भीगते, परेशान हुए मंदिर गया भी और दीपक जला भी दिया, तो वह शैतान नास्तिक आकर बुझा ही देगा। रोज ही बुझा देता है। अब आज नहीं जाता हूं। कल प्रभु से क्षमा मांग लूंगा। वैसे भी, भगवान कौन सा दर्शन ही दे देंगे!’ यह सब सोच कर साधु ने मंदिर न जाने का निश्चय किया और घर में ही दुबका रहा।
उधर, नास्तिक को पता था कि साधु मंदिर जरूर आएगा, दीपक जलाएगा। वह अपने नियत समय पर मंदिर पहुंच गया। घंटों प्रतीक्षा करता रहा, लेकिन साधु नहीं आया। अंत में क्रोधित होकर नास्तिक ने निर्णय लिया कि मैं दीपक बुझाकर ही दम लूंगा, भले दीपक जलाकर बुझाना पड़े। यह सोच कर उसने वहां रखे दीपक में घी भरा और उसे जला दिया।
बस फिर क्या था! भगवान उसी समय प्रकट हो गए, बोले- “उस साधु से भी अधिक श्रद्धा और विश्वास तुम्हारे अंदर है, इतने तूफान में भीग कर भी तुम यहां आ गए। आज ही तो मुझे आना था, जो आया,उसने पाया। यही तो कहा है कबीर ने-
“जिन खोजा तिन पाइया, गहरे पानी पैठ, 
मैं बपुरा बूडन डरा, रहा किनारे बैठ।”
जो प्रयत्न करते हैं, वे कुछ न कुछ वैसे ही पा ही लेते हैं जैसे कोई मेहनत करने वाला गोताखोर गहरे पानी में जाता है और कुछ लेकर ही आता है। लेकिन कुछ बेचारे लोग ऐसे भी होते हैं, जो डूबने के भय से किनारे पर ही बैठे रह जाते हैं और कुछ नहीं पाते.
ऊं तत्सत...

दुख में मगन मन

November 26, 2018 0
दुख में मगन मन
दुख चुनौती है; विकास का अवसर है। दुख अनिवार्य है, क्योंकि दुख के बिना तुम जागोगे नहीं। कौन जगाएगा तुम्हें? हालत तो यह है कि दुख भी नहीं जगा पा रहा है। तुमने दुख से भी अपने को धीरे-धीरे राजी कर लिए है...

तुम्हारी हालत वैसी ही है जैसे कोई रेलवे स्टेशन पर रहता है, तो ट्रेनें निकलती रहती हैं, आती-जाती रहती हैं, शंटिंग होता रहता है। गाड़ियों का और शोरगुल मचता रहता है, मगर उसकी नींद नहीं टूटती। तुम इतने सो गए हो कि अब तुम्हें दुख भी नहीं जगाता मालूम पड़ता। लेकिन दुख का इस अस्तित्व में उपयोग एक ही है कि दुख माँजता है, जगाता है। दुख बुरा नहीं है। दुख न हो तो तुम सब गोबर के ढेर हो जाओगे। दुख तुम्हें आत्मा देता है, चुनौती है। इसलिए दुख को तुम कैसा लेते हो, इस पर सब निर्भर है।
एक सूफी फकीर था, शेख फरीद। उसकी प्रार्थना में एक बात हमेशा होती थी-उसके शिष्य उससे पूछने लगे कि यह बात हमारी समझ में नहीं आती, हम भी प्रार्थना करते हैं, औरों को भी हमने प्रार्थना करते देखा है, लेकिन यह बात हमें कभी समझ में नहीं आती, तुम रोज-रोज यह क्या कहते हो कि हे प्रभु, थोड़ा दुुख रोज देते रहना! यह भी कोई प्रार्थना है? लोग प्रार्थना करते हैं, सुख दो; और तुम प्रार्थना करते हो, हे प्रभु, थोड़ा दुुख रोज देते रहना!
फरीद ने कहा कि सुख में तो मैं सो जाता हूँ और दुख मुझे जगाता है। सुख में तो मैं अक्सर परमात्मा को भूल जाता हूँ और दुख में मुझे उसकी याद आती है। दुख मुझे उसके करीब लाता है। इसलिए मैं प्रार्थना करता हूँ, “हे प्रभु, इतना कृपालु मत हो जाना कि सुख-ही-सुख दे दे। क्योंकि मुझे अभी अपने पर भरोसा नहीं है। तू सुख-ही-सुख दे दे तो मैं सो ही जाऊँ! जगाने को ही कोई बात नहीं रह जाए। अलार्म ही बंद हो गया। तू अलार्म बजाता रहना, थोड़ा-थोड़ा दुख देते रहना, ताकि याद उठती रहे, मैं तुझे भूल न पाऊँ, तेरा विस्मरण न हो जाए।”
यानी तुम कैसे देखते हो, देखने के ढंग पर सब निर्भर करता है! यह जीवन की सहज व्यवस्था का अंग है।

जहनो-दिल में..अगर बसीरत हो..
तीरगी कैफे-नूर देती है…
जीस्त की राह में हर-इक ठोकर..
जिंदगी का शऊर देती है..
‘जहनो-दिल में अगर बसीरत हो’…

अगर देखने की शक्ति हो , क्षमता हो, आँख हो तो अंधेरे को ही प्रकाश में बदल लेने की कला आ जाती है।

‘जीस्त की राह में हर-इक ठोकर’. . .
‛जिंदगी का शऊर देती है’

और जिंदगी की राह में हर-इक ठोकर जिंदगी का राज खोलती है, जिंदगी का रहस्य खोलती है; जिंदगी के द्वार खुलते हैं, जिंदगी की महिमा प्रगट होती है, जीवन का प्रसाद मिलता है। सब तुम पर निर्भर है।

जहनो-दिल में अगर बसीरत हो
तीरगी कैफे-नूर देती है
जीस्त की राह में हर-इक ठोकर
जिंदगी का शऊर देती है
हादसाते-हयात की आँधी
हस्बेफीक रास आती है
तेज करती है सोजा-अहले-कमाल
नाकिसों के दिये बुझाती है
इंतकामे-गमो-अलम लेंगे
जिंदगी को बदल के दम लेंगे
मर गए तो कजाए-गेती के
जर्रे-जर्रे में हम जनम लेंगे
जिंदगी में न कोई गम हो अगर
जिंदगी का मजा नहीं मिलता
राह आसान हो तो रहरौ को
गुमरही का मजा नहीं मिलता ?

जिंदगी में भटकने का भी एक मजा है, क्योंकि भटककर पाने का एक मजा है। जिसने खोया नहीं, उसे पाने का मजा नहीं मिलता। इस जिंदगी के विरोधाभास को जो समझ लेगा, उसने जीवन का सारा राज़ समझ लिया। लोग पूछते हैं, हम परमात्मा से दूर क्यों हो गए? इसीलिए कि हम पास हो सकें। दूर न होओगे तो पास होने का मजा नहीं है।
मछली को निकाल लो सागर से, छोड़ दो घाट पर, तड़पती है। पहली दफा पता चलता है कि सागर में होने का मजा क्या था। सागर में थी एक क्षण पहले तक, तब तक सागर का कोई पता नहीं था। अब अगर यह सागर में वापस गिरेगी तो अहोभाव होगा; अब यह जानेगी कि सागर का कितना-कितना उपकार है मेरे ऊपर। दूर हुए बिना पास होने का मजा नहीं होता। विरह की अग्नि के बिना मिलन के फूल नहीं खिलते। विरह की लपटों में ही मिलन के फूल खिलते हैं।

‘हादसाते-हयात की आँधी’. . . जीवन की दुर्घटनाएँ और दुर्घटनाओं की आँधी
‘हस्बेफीक रास आती है’. . . पात्रता के अनुसार रास आती है।

तुमने देखा? तूफान आता है, छोटे-मोटे दीयों को बुझा देता है; और घर में आग लगी हो, या जंगल में आग लगी हो, तो और लपटों को बढ़ा देता है। यह बड़े मजे की बात है, छोटा दीया बुझ जाता है और लपटें जंगल की और बढ़ जाती हैं। तूफान वही था। सब पात्रता के अनुसार है।
तुम जरा जागो! तुम जरा जंगल की आग बनो! और तुम पाओगे कि जिंदगी की हर आँधी तुम्हारी लपटों को बढ़ाती है; तुम्हें बुझा नहीं पाती। जिंदगी का हर दुःख तुम्हें परमात्मा के सुख के करीब लाता है।

तेज करती है सोजे-अहले-कमाल
नाकिसों के दिये बुझाती है
जिंदगी में न कोई गम हो अगर. .

और अगर दुख न हो जीवन में, जिंदगी का मजा नहीं मिलता। तो सुख का अनुभव ही नहीं हो सकेगा। काँटों के बिना गुलाब के फूल में कोई रस नहीं है, कोई अर्थ नहीं है। अँधेरी रातों के बिना सुबह की ताजगी नहीं है। और मौत के अंधेरे के बिना जीवन का प्रकाश कहाँ?

जिंदगी में न कोई गम हो अगर
जिंदगी का मजा नहीं मिलता
राह आसान हो तो रहरौ को
गुमरही का मजा नहीं मिलता

देखो इस तरह से; तब संसार भी परमात्मा के मार्ग पर एक पड़ाव है। फिर संसार परमात्मा का विपरीत नहीं है, विरोध नहीं है, वरन् परमात्मा को पाने की ही चेष्टा का एक अनिवार्य अंग है। यह दूरी पास आने की पुकार है। यह दुःख जागने की सूचना है।

■ ओशो
[संतो, मगन भया मन मेरा ]

काशी सत्संग: सच्ची लगन

November 26, 2018 0
काशी सत्संग: सच्ची लगन

द्रोणाचार्य उन दिनों हस्तिनापुर में गुरुकुल के बालक पांडव एवं कौरवों को अस्त्र-शस्त्र की शिक्षा दे रहे थे। एक दिन एक काले भील बालक उनके समीप आया। उसने आचार्य के चरणों में प्रणाम करके प्रार्थना की, मेरा नाम एकलव्य है। मैं इस आशा से आया हूं कि आचार्य मुझ पर अनुग्रह करेंगे और मुझे अस्त्र संचालन सिखाएंगे।
आचार्य को उस बालक की नम्रता प्रिय लगी, किंतु राजकुमारों के साथ वे एक भील-बालक को रहने की अनुमति नहीं दे सकते थे। उन्होंने कह दिया, केवल द्विजाति ही किसी भी गुरुगृह में लिए जाते हैं। आखेट के योग्य शस्त्र-शिक्षा तो तुम अपने गुरुजनों से भी पा सकते हो। अस्त्र-संचालन की विशिष्ट शिक्षा तुम्हारे लिए अनावश्यक है। प्रजापालन एवं संग्राम जिनका कार्य है, उसके लिए ही उसकी आवश्यकता होती है।
एकलव्य वहां से निराश होकर लौट गया, किंतु उसका उत्साह नष्ट नहीं हुआ। उसमें अस्त्र-शिक्षा पाने की सच्ची लगन थी। वन में उसने एकांत में एक कुटिया बनाकर द्रोणाचार्य की मिट्टी की प्रतिमा बना कर स्थापित की और स्वयं धनुष-बाण लेकर उस प्रतिमा के सम्मुख अभ्यास करने में जुट गया।
द्रोणाचार्य एक बार अपने शिष्यों के साथ वन में घूम रहे थे। पांडवों का एक कुत्ता उनके साथ से अलग होकर वन में उधर चला गया, जिधर एकलव्य लक्ष्यवेध का अभ्यास कर रहा था। कुत्ता उस काले भील को देखकर भौंकने लगा। उसके भौंकने से एकलव्य के कान में बाधा पड़ी, इसलिए उसने बाणों से उस कुत्ते का मुख भर दिया। इससे घबराकर कुत्ता पांडवों के समीप भाग आया।
सभी पांडव तथा कौरव राजकुमार कुत्ते की दशा देखकर हंसने लगे, किंतु अर्जुन को बड़ा आश्चर्य हुआ। कुत्ते के मुख में इस प्रकार बाण मारे गए थे कि कोई बाण उसे चुभा नहीं था। इतनी सावधानी और शीघ्रता से बाण मारना कोई हंसी-खेल नहीं था। आचार्य द्रोण भी उस अद्भुत धनुर्धर की खोज में निकल पड़े, जिसने यह आतर्कित कार्य साध्य कर दिखाया था।
द्रोणाचार्य को देखते ही एकलव्य दौड़कर उनके चरणों में गिर पड़ा और द्रोणाचार्य उसकी कुटिया में अपनी मिट्टी की प्रतिमा देखकर आश्चर्यचकित हो उठे। इसी समय अर्जुन ने धीरे से उनसे कहा, “गुरुदेव! आपने वचन दिया था कि आपके शिष्यों में मैं सर्वश्रेष्ठ धनुर्धर होऊंगा, किंतु इस भील के सम्मुख तो मेरा हस्तलाघव नगण्य है।”
आचार्य ने संकेत से ही अर्जुन को आश्वासन दे दिया। एकलव्य से उन्होंने गुरु दक्षिणा की मांग की और जब उसने पूछा-कौन-सी सेवा करके मैं अपने को धन्य मानूं? तब आचार्य ने बिना हिचके कह दिया, अपने दाहिने हाथ का अंगूठा मुझे दे दो। अनुपम वीर, अनुपम निष्ठावान एकलव्य अनुपम धीर भी सिद्ध हुआ। उसने तलवार उठाकर दाहिने हाथ का अंगूठा काटा और आचार्य के चरणों के पास उसे आदरपूर्वक रख दिया। अंगूठे के कट जाने से वह बाण चलाने योग्य नहीं रह गया। बाएं हाथ से बाण चला देने पर भी वह धनुर्धरों की गणना में कभी नहीं आ सका। किंतु अपनी निष्ठा, त्याग और अनोखी गुरु दक्षिण के कारण एकलव्य इतिहास में अमर हो गया।
ऊं तत्सत...

“सत्य की प्यास”

November 25, 2018 0
“सत्य की प्यास”
सौभाग्य है उन लोगों का, जो सत्य के लिए प्यासे हो सकें। बहुत लोग पैदा होते हैं, बहुत कम लोग सत्य के लिए प्यासे हो पाते हैं। सत्य का मिलना तो बहुत बड़ा सौभाग्य है। सत्य की प्यास होना भी उतना ही बड़ा सौभाग्य है...

सत्य न भी मिले, तो कोई हर्ज नहीं; लेकिन सत्य की प्यास ही पैदा न हो, तो बहुत बड़ा हर्ज है। सत्य यदि न मिले, तो मैंने कहा, कोई हर्ज नहीं है। हमने चाहा था और हमने प्रयास किया था, हम श्रम किए थे और हमने आकांक्षा की थी, हमने संकल्प बांधा था और हमने जो हमसे बन सकता था, वह किया था। और यदि सत्य न मिले, तो कोई हर्ज नहीं; लेकिन सत्य की प्यास ही हममें पैदा न हो, तो जीवन बहुत दुर्भाग्य से भर जाता है। और मैं आपको यह भी कहूं कि सत्य को पा लेना उतना महत्वपूर्ण नहीं है, जितना सत्य के लिए ठीक अर्थों में प्यासे हो जाना है। वह भी एक आनंद है। जो क्षुद्र के लिए प्यासा होता है, वह क्षुद्र को पाकर भी आनंद उपलब्ध नहीं करता। और जो विराट के लिए प्यासा होता है, वह उसे न भी पा सके, तो भी आनंद से भर जाता है।
कल संध्या मैं किसी से कह रहा था कि अगर एक मरुस्थल में आप हों और पानी आपको न मिले, और प्यास बढ़ती चली जाए, और वह घड़ी आ जाए कि आप अब मरने को हैं और अगर पानी नहीं मिलेगा, तो आप जी नहीं सकेंगे। अगर कोई उस वक्त आपको कहे कि हम यह पानी देते हैं, लेकिन पानी देकर हम जान ले लेंगे आपकी, यानि जान के मूल्य पर हम पानी देते हैं, आप उसको भी लेने को राजी हो जाएंगे। क्योंकि मरना तो है; प्यासे मरने की बजाय, तृप्त होकर मर जाना बेहतर है। उतनी जिज्ञासा, उतनी आकांक्षा, जब आपके भीतर पैदा होती है, तो उस जिज्ञासा और आकांक्षा के दबाव में आपके भीतर का बीज टूटता है और उसमें से अंकुर निकलता है।
एक बार ऐसा हुआ, गौतम बुद्ध एक गांव में ठहरे थे। एक व्यक्ति ने उनको आकर कहा कि ‘आप रोज कहते हैं कि हर एक व्यक्ति मोक्ष पा सकता है। लेकिन हर एक व्यक्ति मोक्ष पा क्यों नहीं लेता है?’ बुद्ध ने कहा, ‘मेरे मित्र, एक काम करो। संध्या को गांव में जाना और सारे लोगों से पूछकर आना, वे क्या पाना चाहते हैं। एक फेहरिस्त बनाओ। हर एक का नाम लिखो और उसके सामने लिख लाना, उनकी आकांक्षा क्या है।’ वह आदमी गांव में गया। उसने जाकर पूछा। उसने एक-एक आदमी को पूछा। थोड़े-से लोग थे उस गांव में, उन सबने उत्तर दिए। वह सांझ को वापस लौटा। उसने बुद्ध को आकर वह फेहरिस्त दी। बुद्ध ने कहा, ‘इसमें कितने लोग मोक्ष के आकांक्षी हैं?’ वह बहुत हैरान हुआ। उसमें एक भी आदमी ने अपनी आकांक्षा में मोक्ष नहीं लिखाया था। बुद्ध ने कहा, ‘हर एक आदमी पा सकता है, यह मैं कहता हूं। लेकिन हर एक आदमी पाना चाहता है, यह मैं नहीं कहता।’
हर एक आदमी पा सकता है, यह बहुत अलग बात है। और हर एक आदमी पाना चाहता है, यह बहुत अलग बात है। अगर आप पाना चाहते हैं, तो यह आश्वासन मानें। अगर आप सच में पाना चाहते हैं, तो इस जमीन पर कोई ताकत आपको रोकने में समर्थ नहीं है। और अगर आप नहीं पाना चाहते, तो इस जमीन पर कोई ताकत आपको देने में भी समर्थ नहीं है। तो सबसे पहली बात, सबसे पहला सूत्र, जो स्मरण रखना है, वह यह कि आपके भीतर एक वास्तविक प्यास है? अगर है, तो आश्वासन मानें कि रास्ता मिल जाएगा। और अगर नहीं है, तो कोई रास्ता नहीं है। आपकी प्यास आपके लिए रास्ता बनेगी।
■ ओशो (ध्यान सूत्र)

काशी सत्संग: हरि कथा अनंता

November 25, 2018 0
काशी सत्संग: हरि कथा अनंता

“हरि अनंत हरि कथा अनंता।
कहहिं सुनहिं बहुबिधि सब संता॥”
गौरी रोटी बनाते-बनाते "राम-राम" का जाप कर रही थी, अलग से पूजा का समय कहां निकाल पाती थी। बेचारी, तो बस काम करते-करते ही...। एकाएक धड़ाम से आवाज हुई और साथ में दर्दनाक चीख। कलेजा धक से रह गया, जब आंगन में दौड़ कर झांकी। आठ साल का चुन्नू चित्त पड़ा था खून से लथपथ। मन हुआ दहाड़ मार कर रोए। परंतु घर में उसके अलावा कोई था नहीं, रोकर भी किसे बुलाती! फिर चुन्नू को संभालना भी तो था। दौड़ कर  नीचे गई, तो देखा चुन्नू आधी बेहोशी में मां-मां की रट लगाए हुए है। अंदर की ममता ने आंखों से निकल कर अपनी मौजूदगी का अहसास करवाया। फिर दस दिन पहले करवाए अपेंडिक्स के ऑपरेशन के बावजूद ना जाने कहां से इतनी शक्ति आ गई कि चुन्नू को गोद में उठा कर पड़ोस के नर्सिंग होम की ओर दौड़ी। रास्ते भर भगवान को कोसती रही, जी भर कर, बड़बड़ाती रही, हे प्रभु! क्या बिगाड़ा था मैंने तुम्हारा, जो मेरे ही बच्चे को..। खैर, डॉक्टर मिल गए और समय पर इलाज होने पर चुन्नू बिल्कुल ठीक हो गया। चोटें गहरी नहीं थी, ऊपरी थीं, तो कोई खास परेशानी नहीं हुई।
रात को घर पर जब सब टीवी देख रहे थे, तब गौरी का मन बेचैन था। भगवान से विरक्ति होने लगी थी। एक मां की ममता प्रभुसत्ता को चुनौती दे रही थी। उसके दिमाग में दिन की सारी घटना चलचित्र की तरह चलने लगी। कैसे चुन्नू आंगन में गिरा, एकाएक उसकी आत्मा सिहर उठी, कल ही तो पुराने चापाकल का पाइप का टुकड़ा आंगन से हटवाया है, ठीक उसी जगह था जहां चुन्नू गिरा था। अगर कल मिस्त्री न आया होता तो..? उसका हाथ अब अपने पेट की तरफ गया, जहां टांके अभी हरे ही थे, ऑपरेशन के। आश्चर्य हुआ कि उसने 20-22 किलो के चुन्नू को उठाया कैसे?कैसे वो आधा किलोमीटर तक दौड़ती चली गई? फूल सा हल्का लग रहा था चुन्नू। वैसे तो, वो कपड़ों की बाल्टी तक छत पर नहीं ले जा पाती। फिर उसे ख्याल आया कि डॉक्टर साहब तो 2 बजे तक ही रहते हैं और जब वो पहुंची तो साढ़े 3 बज रहे थे, उसके जाते ही तुरंत इलाज हुआ, मानो किसी ने उन्हें रोक रखा था। उसका सर प्रभु चरणों में श्रद्धा से झुक गया। अब वो सारा खेल समझ चुकी थी।
मन ही मन प्रभु से अपने शब्दों के लिए क्षमा मांगी। टीवी पर प्रवचन आ रहा था; प्रभु कहते हैं, "मैं तुम्हारे ऊपर आने वाले संकट रोक नहीं सकता, लेकिन तुम्हें इतनी शक्ति दे सकता हूं कि तुम आसानी से उन्हें पार कर सको, तुम्हारी राह आसान कर सकता हूं। बस धर्म के मार्ग पर चलते रहो।"
गौरी ने घर के मंदिर में झांक कर देखा, श्रीराम जानकी संग जैसे मुस्कुरा रहे थे और शायद कह रहे थे एक बार मुझ पर भरोसा किया, तो फिर संशय कैसा!!
ऊं तत्सत...

प्रेम की नाव सभवसागर करोगे पार

November 24, 2018 0
प्रेम की नाव सभवसागर करोगे पार
प्रेम के ही माध्यम से तुम संसार तक आए हो, प्रेम के ही माध्यम से परमात्मा तक पहुंचोगे; रुख बदल जाएगा, दिशा बदल जाएगी। क्योंकि जो तुम्हें बांधता है, वही मुक्त भी कर सकता है...

एक बड़ी प्राचीन कथा है। एक सम्राट अपने वजीर पर नाराज हो गया। उसने उसे एक मीनार पर बंद करवा दिया। वहा से भागने का कोई उपाय न था। अगर वह कूदे भी तो प्राण निकल जाएं। बड़ी ऊंची मीनार थी। उसकी पत्नी चिंतित थी, उसे कैसे बचाया जाए? वह एक फकीर के पास गयी। फकीर ने कहा कि जिस तरह हम बचे, उसी तरह वह भी बच सकता है। पत्नी ने पूछा कि आप भी कभी किसी मीनार पर कैद थे? उसने कहा कि मीनार पर तो नहीं, लेकिन कैद थे। और हम जिस तरह बचे, वही रास्ता उसके काम भा आ जाएगा।
फकीर ने अपने बगीचे में जाकर एक छोटा सा कीड़ा उसे पकड़कर दे दिया। कीड़े की मूंछों पर शहद लगा दी और कीड़े की पूंछ में एक पतला महीन रेशम का धागा बाध दिया।
पत्नी ने कहा, आप यह क्या कर रहे हैं? इससे क्या होगा? उसने कहा, तुम फिकर मत करो। ऐसे ही हम बचे। इसे तुम छोड़ दो मीनार पर। यह ऊपर की तरफ बढ़ना शुरू हो जाएगा। क्योंकि वह जो मधु की गंध आ रही है-मूंछों पर लगी मधु की गंध-वह उसकी तलाश में जाएगा। और गंध आगे बढ़ती जाएगी। जैसे-जैसे कीड़ा आगे बढ़ेगा, तलाश उसे करनी ही पड़ेगी। और उसके पीछे बंधा हुआ धागा तेरे पति तक पहुंच जाएगा। पर पत्नी ने कहा, इस पतले धागे से क्या होगा?
फकीर ने कहा, घबड़ा मत। पतला धागा जब ऊपर पहुंच जाए, तो पतले’ धागे में थोड़ा मजबूत धागा बांधना। फिर मजबूत धागे में थोड़ी रस्सी बांधना। फिर रस्सी में मोटी रस्सी बांधना। उस मोटी रस्सी से तेरा पति उतर आएगा। उस छोटे से कीड़े ने पति को मुक्ति दिलवा दी। एक बड़ा महीन धागा! लेकिन उस धागे के सहारे और मोटे धागे पकड़ में आते चले गए।
तुम्हारा प्रेम अभी बड़ा महीन धागा है, बहुत कचरे-कूड़े से भरा है। लेकिन तुम्हारे कूड़ा-कर्कट में एक पतला सा धागा भी पड़ा है, जिसे शायद तुम भी भूल गए हो। उस धागे को मुक्त कर लेना है। क्योंकि उसी धागे के माध्यम से तुम कारागृह के बाहर जा सकोगे।
ध्यान रखना, इस सत्य को बहुत खयाल में रख लेना कि जो बांधता है उसी से मुक्ति भी हो सकती है। जंजीर बांधती है, तो जंजीर से ही मुक्ति होगी। कांटा गड़ जाता है, पीड़ा देता है, तो दूसरे काटे से उस काटे को निकाल लेना पड़ता है। जिस रास्ते से तुम मेरे पास तक आए हो, उसी रास्ते से वापस अपने घर जाओगे, सिर्फ रुख बदल जाएगा, दिशा बदल जाएगी। आते वक्त मेरी तरफ चेहरा था, जाते वक्त मेरी तरफ पीठ होगी। रास्ता वही होगा, तुम वही होओगे। प्रेम के ही माध्यम से तुम संसार तक आए हो, प्रेम के ही माध्यम से परमात्मा तक पहुंचोगे; रुख बदल जाएगा, दिशा बदल जाएगी।
सितारों के आगे जहां और भी है,
अभी इश्क के इम्‍तिहां और भी हैं,
जिसे तुमने प्रेम समझा, वह अंत नहीं है,
अभी इश्क के इम्तहां और भी हैं।
अभी प्रेम की और भी मंजिलें हैं, और प्रेम के अभी और भी इप्तिहान हैं, परीक्षाएं हैं। और प्रेम की आखिरी परीक्षा परमात्मा है। ध्यान रखना, जो तुम्हें फैलाए वही तुम्हें परमात्मा तक ले जाएगा। प्रेम फैलाता है, भय सिकुड़ता है। संसार से डरो मत, परमात्मा से भरो। जितने ज्यादा तुम परमात्मा से भर जाओगे, तुम पाओगे, तुम संसार से मुक्त हो गए।
■ ओशो

काशी सत्संग: खाली मन में ‛राम’

November 24, 2018 0
काशी सत्संग: खाली मन में ‛राम’

एक संन्यासी घूमते-फिरते एक दुकान पर आया। दुकान में अनेक छोटे-बड़े डिब्बे थे। संन्यासी के मन में जिज्ञासा उत्पन्न हुई, एक डिब्बे की ओर इशारा करते हुए संन्यासी ने दुकानदार से पूछा, इसमें क्या है?
दुकानदार ने कहा:- इसमें नमक है।
संन्यासी ने फिर पूछा- इसके पास वाले में क्या है?
दुकानदार ने कहा- इसमें हल्दी है।
इसी प्रकार संन्यासी पूछ्ता गया और दुकानदार बतलाता रहा, अंत में पीछे रखे डिब्बे का नंबर आया।
सन्यासी ने पूछा उस अंतिम डिब्बे में क्या है?
दुकानदार बोला- उसमें राम-राम है।
संन्यासी ने आश्चर्यचकित होकर पूछा- राम राम!! भला यह राम-राम किस वस्तु का नाम है भाई? मैंने तो इस नाम की किसी वस्तु के बारे में कभी नहीं सुना।
दुकानदार संन्यासी के भोलेपन पर हंस कर बोला- महात्मन! और डिब्बों में तो भिन्न-भिन्न वस्तुएं हैं, पर यह डिब्बा खाली है, हम खाली को खाली नहीं कहकर राम-राम कहते हैं।
संन्यासी की आंखें खुली की खुली रह गई। वह सोच में पड़ गया कि जिस बात के लिए मैं दर-दर भटक रहा था, वो बात आज इस दूकानदार ने कितनी आसानी से समझा दी। संन्यासी उस दुकानदार के चरणों में गिर पड़ा। “ओह! तो खाली में ‛राम’ रहते हैं।”
सत्य है भाई। भरे हुए में राम के लिए स्थान कहां? काम, क्रोध, लोभ, मोह, लालच, अभिमान, ईर्ष्या, द्वेष और भली- बुरी, सुख-दु:ख की बातों से जब दिल-दिमाग भरा रहेगा, तो उसमें ईश्वर का वास कैसे होगा? वे तो साफ-सुथरे मन में ही निवास करता है।
एक छोटी सी दुकान वाले ने संन्यासी को बहुत बड़ी बात समझा दी थी! आज संन्यासी अपने आनंद में था, क्योंकि जिसे वो खोज रहा था आज उसे पता चल गया कि वो उसे कैसे और कहां मिलेगा।
ऊं तत्सत...

काशी सत्संग: शरणागति

November 23, 2018 0
काशी सत्संग: शरणागति

एक बार प्रभु श्रीराम, सीताजी और लक्ष्मणजी के साथ जंगल में एक वृक्ष के नीचे बैठे थे। उस वृक्ष की शाखाओं और टहनियों पर एक लता छाई हुई थी। लता के कोमल-कोमल तन्तु फैल रहे थे। उन तन्तुओं में कही पर नयी-नयी कोंपलें निकल रही थीं और कहीं पर ताम्रवर्ण के पत्ते निकल रहे थे। पुष्प और पत्तों से लता छाई हुई थी। उससे वृक्ष की सुन्दर शोभा हो रही थी। वृक्ष बहुत ही सुहावना लग रहा था। उस वृक्ष की शोभा को देखकर श्रीराम लक्ष्मणजी से बोलेः "देखो लक्ष्मण! यह लता अपने सुन्दर-सुन्दर फल, सुगन्धित फूल और हरी-हरी पत्तियों से इस वृक्ष की कैसी शोभा बढ़ रही है! जंगल के अन्य सब वृक्षों से यह वृक्ष कितना सुन्दर दिख रहा है! इतना ही नहीं, इस वृक्ष के कारण ही सारे जंगल की शोभा हो रही है। इस लता के कारण ही पशु-पक्षी इस वृक्ष का आश्रय लेते हैं। धन्य है यह लता!"
प्रभु के मुख से लता की प्रशंसा सुनकर सीताजी लक्ष्मण से बोलीं- "देखो लक्ष्मण भैया! इस लता का ऊपर चढ़ जाना, फूल पत्तों से छा जाना, तन्तुओं का फैल जाना, ये सब वृक्ष के आश्रित हैं, वृक्ष के कारण ही हैं। इस लता की शोभा भी वृक्ष के ही कारण है। अतः मूल में महिमा तो वृक्ष की ही है। आधार तो वृक्ष ही है। वृक्ष के सहारे बिना लता स्वयं क्या कर सकती है? कैसे छा सकती है? अब तुम्हीं बताओ, महिमा वृक्ष की ही हुई न? वृक्ष का सहारा पाकर ही लता धन्य हुई न?"
श्रीराम बोले- "क्यों लक्ष्मण! यह महिमा तो लता की ही हुई न? लता को पाकर वृक्ष ही धन्य हुआ न?" लक्ष्मण जी बोले- "हमें तो एक तीसरी ही बात सूझती है।" सीता जी ने पूछाः "वह क्या?" लक्ष्मणजी बोले- "न वृक्ष धन्य है न लता धन्य है। धन्य तो यह लक्ष्मण है, जो दोनों की छाया में रहता है।"
मित्रों, कोई भगवान को श्रेष्ठ मानता है, तो कोई उनकी शक्ति को, जबकि दोनों ही एक दूसरे की शोभा बढ़ाते हैं। किन्तु, शरणागत भक्त के लिए तो प्रभु और उनकी आह्लादिनी शक्ति दोनों का ही आश्रय श्रेष्ठ है। जब मनुष्य भगवान की शरण हो जाता है, उनके चरणों का सहारा ले लेता है तो वह सम्पूर्ण प्राणियों से, विघ्न-बाधाओं से निर्भय हो जाता है। भगवान की शरण होने का तात्पर्य 'नारदभक्ति सूत्र' में आया है- “तद्विस्मरणे परम व्याकुलतेति।” ऐसे भक्त से अगर कोई कहे कि आधे क्षण के लिए भगवान को भूल जाओ, तो तीनों लोकों का राज्य मिलेगा, तो वह इसे ठुकरा देगा। भागवत में आया हैः‛तीनों लोकों के समस्त ऐश्वर्य के लिए भी उन देवदुर्लभ भगवच्चरणकमलों को जो आधे निमेष के लिए भी नहीं त्याग सकते, वे ही श्रेष्ठ भगवदभक्त हैं।' 
ऊं तत्सत...

“एक ओंकार सतनाम”

November 22, 2018 0
“एक ओंकार सतनाम”
“इक ओंकार सतिनाम, करता पुरखु निरभऊ। 
निरबैर, अकाल मूरति, अजूनी, सैभं गुर प्रसादि!! 
जप आद सचु जुगादि सच। 
है भी सचु नानक होसी भी सच।। 
सोचे सोचि न होवई जे सोची लख बार। 
चुपै चुप न होवई जे लाइ रहा लिवतार। 
भुखिया भुख न उतरी जे बंना पुरीआं भार। 
सहस सियाणपा लख होहि, त इक न चले नाल। 
किव सचियारा होइए, किव कूड़ै तुटै पाल। 
हुकमि रजाई चलणा ‘नानक’ लिखिआ नाल।”

‘वह एक है, ओंकार स्वरूप है, सत नाम है, कर्ता पुरुष है, भय से रहित है, वैर से रहित है, कालातीत- मूर्ति है, अयोनि है, स्वयंभू है, गुरु की कृपा से प्राप्त होता है।’

एक है–इक ओंकार सतिनाम। जो भी हमें दिखाई पड़ता है वह अनेक है। जहां भी तुम देखते हो, भेद दिखाई पड़ता है। जहां तुम्हारी आंख पड़ती है, अनेक दिखाई पड़ता है। सागर के किनारे जाते हो, लहरें दिखाई पड़ती हैं। सागर दिखाई नहीं पड़ता। हालांकि सागर ही है। लहरें तो ऊपर-ऊपर हैं। पर जो ऊपर-ऊपर है वही दिखाई पड़ता है, क्योंकि ऊपर की ही आंख हमारे पास है। भीतर को देखने के लिए तो भीतर की आंख चाहिए। जैसी होगी आंख, वैसा ही होगा दर्शन। आंख से गहरा तो दर्शन नहीं हो सकता।
तुम्हारे पास आंख ही ऊपर की है। तो लहरों को देख कर लौट आओगे। और लोगों से कहोगे कि सागर हो आया। सागर में जाने का यह ढंग नहीं है। किनारे से तो दिखाई पड़ेंगी लहरें। सागर में हो तो डूबना ही पड़े। इसलिए तो कहानी है कि नानक नदी में डूब गए। लहरों में नहीं है वह, नदी में है। लहरों में नहीं है, सागर में है। ऊपर-ऊपर तो लहरें होंगी। तट से तुम देख कर लौट आओगे, तो तुम जो खबर दोगे वह गलत होगी। तुम कहोगे कि सागर हो आया। सागर तक तुम गए नहीं। तट पर तो सागर नहीं है, वहां से तो लहरें दिखाई पड़ सकती हैं। लहरों का जोड़ भी सागर नहीं है। जोड़ से भी ज्यादा है सागर। और जो मौलिक भेद है वह यह है कि लहर अभी है, क्षण भर बाद नहीं होगी, क्षण भर पहले नहीं थी।

एक सूफी फकीर हुआ जुन्नैद। बहुत प्रेम करता था अपने बेटे को। फिर बेटा अचानक मर गया किसी दुर्घटना में, तो दफना आया। पत्नी थोड़ी हैरान हुई। पत्नी सोचती थी कि बेटा मरेगा तो जुन्नैद पागल हो जाएगा; इतना प्रेम करता था बेटे को। लेकिन जैसे जुन्नैद को कुछ हुआ ही नहीं। जैसे बेटा मरा ही नहीं। जैसे कोई बात ही नहीं हुई, जुन्नैद वैसा ही रहा। आखिर सांझ होते-होते जब लोग विदा हो गए सहानुभूति प्रगट करके, तो पत्नी ने पूछा कि कुछ दुख नहीं हुआ तुम्हें? मैं तो सोचती थी तुम टूट जाओगे। इस बेटे से तुम्हें इतना प्रेम था। जुन्नैद ने कहा कि एक क्षण को धक्का लगा था, फिर मुझे याद आया, जब यह बेटा नहीं था तब भी मैं था और खुश था। जब यह बेटा नहीं था तब भी मैं था और खुश था; अब यह बेटा नहीं है तो दुख होने का क्या कारण है? फिर वैसे ही हो गया, जैसे पहले था। बेटा बीच में आया और गया। न पहले दुखी था तो अब दुखी होने का क्या कारण? बिना बेटे के मजे में था। अब फिर बिना बेटे के हूं। फर्क क्या है? बीच का एक सपना टूट गया। जो बनता है और मिट जाता है, वह सपना है। जो आता है और चला जाता है, वह सपना है ।

लहरें सपना हैं, सागर सच है। अनेक लहरें हैं, एक सागर है। हमें अनेक दिखाई पड़ता है। और जब तक एक न दिखाई पड़ जाए, तब तक हम भटकते रहेंगे। क्योंकि एक ही सच है। इक ओंकार सतिनाम। और नानक कहते हैं कि उस एक का जो नाम है, वही ओंकार है। और सब नाम तो आदमी के दिए हैं। राम कहो, कृष्ण कहो, अल्लाह कहो, ये नाम आदमी के दिए हैं। ये हमने बनाए हैं। सांकेतिक हैं। लेकिन एक उसका नाम है जो हमने नहीं दिया; वह ओंकार है, वह ॐ है।

क्यों“ओंकार उसका नाम है? क्योंकि जब सब शब्द खो जाते हैं और चित्त शून्य हो जाता है और जब लहरें पीछे छूट जाती हैं और सागर में आदमी लीन हो जाता है तब भी ओंकार की धुन सुनाई पड़ती रहती है। वह हमारी की हुई धुन नहीं है। वह अस्तित्व की धुन है। वह अस्तित्व की ही लय है। अस्तित्व के होने का ढंग ओंकार है। वह किसी आदमी का दिया हुआ नाम नहीं है। इसलिए ॐ का कोई भी अर्थ नहीं होता।

ॐ कोई शब्द नहीं है। ॐ ध्वनि है और ध्वनि भी अनूठी है। कोई उसका स्रोत नहीं है। कोई उसे पैदा नहीं करता। अस्तित्व के होने में ही छिपी है। अस्तित्व के होने की ध्वनि है। जैसे कि जलप्रपात है; तुम उसके पास बैठो तो प्रपात की एक ध्वनि है। लेकिन वह ध्वनि पानी और चट्टान की टक्कर से पैदा होती है। नदी के पास बैठो, कल-कल का नाद होता है। लेकिन वह कल-कल का नाद नदी और तट की टक्कर से होता है। हवा का झोंका निकलता है, वृक्ष से सरसराहट होती है। लेकिन वह सरसराहट हवा और वृक्ष की टक्कर से होती है।

हम बोलते हैं, संगीतज्ञ गीत गाता है, वीणा का कोई तार छेड़ता है, लेकिन सभी चीज संघर्ष से पैदा होती है। संघर्ष के लिए दो जरूरी हैं। तार चाहिए वीणा का, हाथ चाहिए छेड़नेवाला। जितनी ध्वनियां द्वैत से पैदा होती हैं, वे उसके नाम नहीं हैं। उसका नाम तो वही है, जब सब द्वैत खो जाता है, फिर भी एक ध्वनि गूंजती रहती है। इस संबंध में कुछ बातें समझ लेनी जरूरी हैं। विज्ञान कहता है कि सारे अस्तित्व को अगर हम तोड़ते चले जाएं, और गहराई में विश्लेषण करें, तो अंत में हमें विद्युत- ऊर्जा, इलेक्ट्रीसिटी मिलती है। इसलिए जो आखिरी खोज है विज्ञान की, वह इलेक्ट्रान है, विद्युतकण। सारा अस्तित्व विद्युत से बना है। अगर हम विज्ञान से पूछें कि ध्वनि किससे बनी है? तो विज्ञान कहता है, वह भी विद्युत से बनी है। ध्वनि भी विद्युत का एक आकार है, एक रूप है। लेकिन मूल विद्युत है। इस संबंध में समस्त ज्ञानियों की विज्ञान से सहमति है, थोड़े से भेद के साथ। वह भेद बड़ा नहीं, वह भेद भाषा का है। समस्त ज्ञानियों ने पाया कि अस्तित्व बना है ध्वनि से और ध्वनि का ही एक रूप विद्युत है।

विज्ञान कहता है, विद्युत का एक रूप ध्वनि है; और धर्म कहता है कि विद्युत ध्वनि का एक रूप है। इतना ही फासला है। मगर यह फासला ऐसा ही दिखाई पड़ता है जैसे ग्लास आधा भरा हो; कोई कहे आधा भरा है, कोई कहे आधा खाली है। विज्ञान की पहुंच का द्वार अलग है। विज्ञान ने पदार्थ को तोड़त्तोड़ कर विद्युत को खोजा है। ज्ञानियों की पहुंच का मार्ग अलग है। उन्होंने अपने को जोड़- जोड़ कर–तोड़ कर नहीं; अपने को जोड़-जोड़ कर अखंड को पाया है। और उस अखंड में एक ध्वनि पाई है। जब कोई व्यक्ति समाधिस्थ हो जाता है तो ओंकार की ध्वनि गूंजती है। वह अपने भीतर उसे गूंजते पाता है, अपने बाहर गूंजते पाता है। सब, सारे लोक उससे व्याप्त मालूम होते हैं। चकित हो जाता है पहली बार, जब घटता है। क्योंकि वह देखता है कि मैं तो बोल नहीं रहा, मैं तो कुछ कर नहीं रहा, यह ध्वनि कहां से आ रही है? तब वह अनुभव करता है कि यह होने की ध्वनि है, यह किसी टक्कर से पैदा नहीं हो रही है।

यह आहत ध्वनि नहीं है, यह अनाहत नाद है। नानक कहते हैं, वही एक उसका नाम है–ओंकार। नानक बहुत बार नाम शब्द का प्रयोग करेंगे। इसे स्मरण रखना कि जब भी वे कहते हैं, उसका नाम; और उसका नाम ही मार्ग है, और उसके नाम की रटन में जो डूब जाएगा, उसके नाम में जो डूब जाएगा वह उसे पा लेगा; तो ध्यान रखना, नाम जब भी नानक कहते हैं, तब उनका इशारा ओंकार की तरफ है। क्योंकि वही एक उसका नाम है जो हमने नहीं दिया, जो उसका ही है। हमारे दिए हुए नाम बहुत दूर न जा सकेंगे। और अगर थोड़े-बहुत जाते भी हैं, तो इसलिए जाते हैं कि हमारे नामों में भी उसके नाम की थोड़ी- सी झलक होती है। जैसे समझो कि राम। अगर कोई राम, राम, राम, की रटन लगा दे भीतर, तो उसमें ओंकार की थोड़ी-सी झलक है। वह जो म है वह ॐ का है।

इसलिए राम शब्द से भी थोड़ी दूर तक जा सकेंगे हम। लेकिन अगर तुम धुन को करते ही गए, तो तुम एक दिन अचानक पाओगे कि राम की ध्वनि ओंकार में बदल गई। अगर तुम करते ही जाओगे तो जैसे ही मन शांत होगा, वैसे ही ॐ तुम्हारे राम में प्रविष्ट हो जाएगा। और तुम धीरे-धीरे पाओगे कि राम तो खो गया, ॐ आ गया। समस्त ज्ञानियों का यह अनुभव है कि उन्होंने किसी भी नाम से शुरू किया हो, लेकिन आखिरी में ॐ आ जाता है। जैसे ही तुम शांत होने लगते हो, वैसे ही ॐ आने लगता है। ॐ सदा मौजूद है, बस, तुम्हारे शांत होने की जरूरत है।
■ ओशो

काशी सत्संग: ‘एको ब्रह्म द्वितीयो नास्ति’

November 22, 2018 0
काशी सत्संग: ‘एको ब्रह्म द्वितीयो नास्ति’

रामकृष्ण परमहंस एक बार प्रसिद्ध नागा गुरु के साथ बैठे थे। माघ का महीना था और धूनी जल रही थी। ज्ञान की बातें हो रही थीं। तभी एक माली वहां से गुजरा और उसने धूनी से अपनी चिलम में भरने के लिए कुछ कोयले ले लिए। माली द्वारा इस तरह पवित्र धूनी को छूना नागा गुरु को बहुत बुरा लगा। उन्होंने न केवल माली को भला-बुरा कहा, बल्कि उसे दो-तीन थप्पड़ भी मार दिए। माली परमहंस की धूनी से अक्सर कोयले लेकर चिलम भरा करता था। इस पर रामकृष्ण परमहंस जोर-जोर से हंसने लगे।
रामकृष्ण को हंसता देख कर नागा गुरु ने उनसे सवाल किया- “इस माली ने पवित्र अग्नि को छूकर अपवित्र कर दिया, पर तुम हंस रहे हो।” परमहंस ने जवाब दिया- “मुझे नहीं पता था कि किसी के छूने भर से कोई वस्तु अपवित्र हो जाती है। अभी तक आप ‘एको ब्रह्म द्वितीयो नास्ति’ कहकर मुझे ज्ञान दे रहे थे कि समस्त विश्व एक ही परब्रह्म के प्रकाश से प्रकाशमान है, लेकिन आपका यह ज्ञान तब कहां चला गया, जब आपने मात्र धूनी की अग्नि छूने के बाद माली को पीट दिया।” यह सुनकर नागा गुरु को अपनी गलती का अहसास हुआ। उन्होंने माली को बुलाकर उससे क्षमा मांगी और प्रतिज्ञा की कि आगे से ऐसी गलती कभी नहीं करेंगे।
ऊं तत्सत...

मन रे, करु संतोष सनेही!

November 21, 2018 0
मन रे, करु संतोष सनेही!
यह तो हम सभी दोहराते हैं-संतोषी सदा सुखी। यह तो हम सब जानते ही हैं। मगर जानते कहाँ हैं? सुना है, पकड़ भी लिया है, तोतों की तरह दोहरा भी लेते हैं, मगर जानते कहाँ हैं...

समझो- मन रे, करु संतोष सनेही। रज्जब कहते हैं—दोस्त तो दुनिया में एक है, प्रेमी तो दुनिया में एक है, अगर प्रेम ही करना हो तो उसीसे कर लेना, उसका नाम संतोष है। संतोष से प्रेम कर लेंगे तो क्या होगा? हमने तो नाते असंतोष से जोड़े हैं। हमने तो विवाह असंतोष से रचाया है। हमने तो हाथ में हाथ डाल दिए हैं असंतोष के। फिर तड़फ रहे हैं, फिर रो रहे हैं, फिर गिड़गिड़ा रहे हैं। मगर दोस्ती नहीं छोड़ते।
असंतोष का तर्क समझो। असंतोष की व्यवस्था समझो। असंतोष की व्यवस्था यह है कि जो मिल गया, वही व्यर्थ हो जाता है। सार्थकता तभी तक मालूम होती है, जब तक मिले नहीं। जिस स्त्री को तुम चाहते थे, जब तक मिले न तब तक बड़ी सुंदर। मिल जाए, सब सौंदर्य तिरोहित। जिस मकान को तुम चाहते थे-कितनी रात सोए नहीं थे! कैसे-कैसे सपने सजाए थे, फिर मिल गया और बात व्यर्थ हो गयी। जो भी हाथ में आ जाता है, हाथ में आते ही से व्यर्थ हो जाता है। इस असंतोष को तुम दोस्त कहोगे? यही तो तुम्हारा दुश्मन है। यह तुम्हें दौड़ाता है-सिर्फ दौड़ाता है और जब भी कुछ मिल जाता है, मिलते ही उसे व्यर्थ कर देता है। फिर दौड़ाने लगता है।
यह दौड़ाता रहा है जन्मों-जन्मों से तुम्हें। वह जो चौरासी कोटियों में तुम दौड़े हो, असंतोष की दोस्ती के कारण दौड़े हो। दस हजार रुपए पास में हैं-क्या है मेरे पास, कुछ भी तो नहीं! लाख हो जाएँ तो कुछ होगा! लाख होते ही तुम्हारा असंतोष-तुम्हारा मित्र, तुम्हारा साझीदार-कहेगा, लाख में क्या होता है? जरा चारों तरफ देखो, लोगों ने दस-दस लाख बना लिए हैं। अरे मूढ़, तू लाख में ही बैठा है! अब लाख की कीमत ही क्या रही? अब गए दिन लाखों के, अब दिन करोड़ों के हैं। करोड़ बना! तो कुछ होगा।तुम सोचते हो करोड़ हो जाएगा तुम्हारे पास तो कुछ होगा? कुछ भी नहीं होगा। यही असंतोष तुम्हारा साथी वहाँ भी मौजूद रहेगा।
संतोष से जिसने दोस्ती बाँधी, उसकी दौड़ ही गयी। उसकी आपाधापी समाप्त हो जाती है। संतोष का सूत्र उलटा है। संतोष कहता है-जो है, वही सार्थक है। जो नहीं है, उसमें क्या रखा है! जो अपने पास है, वही धन्यभाग है।
मगर तुम्हारा अंधापन ऐसा है कि तुम असंतोष से कभी पूछते ही नहीं कि तू पहले यह कहता था, अब तू यह कहता है, तू बदलता जाता है? नहीं, दोस्ती गहरी है, दोस्त पर भरोसा होता है। भरोसे का नाम ही तो दोस्ती है।
रज्जब कहते हैं-यह दोस्ती छोड़ो। इसने तुम्हें जन्मों-जन्मों भटकाया है, नरकों की यात्रा करवायी है, दुःख से और महादुःख में ले गया है, यह दोस्ती छोड़ो। अब एक नयी दोस्ती बनाओ, संतोष से दोस्ती बनाओ।
मन रे, करु संतोष सनेही। प्यारे, संतोष को पकड़ो। संतोष से प्रेम लगाओ। संतोष कहता है-जो है, धन्य मेरा भाग! इससे भी कम हो सकता था। जो है, इतना भी क्या कम है! इतना भी होना ही चाहिए, इसकी कोई अनिवार्यता थोड़े ही है! यह भी परमात्मा की देन है। मैं अनुगृहीत हूँ।
समाधि का क्या अर्थ है? संतोष से दोस्ती थिर हो गयी। अडिग हो गयी। असंतोष के हमले बंद हो गए। समाधि शब्द को देखते हो? उसी धातु से बना है जिससे समाधान। समाधान का अर्थ होता है-अब कोई असमाधान नहीं है चित्त में। ऐसा होना चाहिए, वैसा होना चाहिए, ऐसी कोई चिंता नहीं है चित्त में, अब कोई समस्या नहीं है चित्त में। अब तो जैसा है वैसा है-‛ज्यूँ का त्यूँ ठहराया’। नहीं तो घूमोगे भिखारी बने-बने। बन जाओ सम्राट!
■ ओशो

काशी सत्संग: परनिंदा के दुष्परिणाम

November 21, 2018 0
काशी सत्संग: परनिंदा के दुष्परिणाम

राजा पृथु एक दिन सुबह-सुबह घोड़ों के तबेले में जा पहुंचे। तभी वहीं एक साधु भिक्षा मांगने आ पहुंचा। सुबह-सुबह साधु को भिक्षा मांगते देख पृथु क्रोध से भर उठे। उन्होंने साधु की निंदा करते हुए बिना विचारे तबेले से घोड़े की लीद उठाई और उसके पात्र में डाल दिया। साधु शांतिपूर्वक भिक्षा लेकर वहां से चला गया और वह लीद कुटिया के बाहर एक कोने में डाल दी। कुछ समय उपरान्त राजा पृथु शिकार के लिए गए। पृथु ने जब जंगल में देखा एक कुटिया के बाहर घोड़े की लीद का बड़ा सा ढेर लगा हुआ है। उन्होंने देखा कि यहां तो न कोई तबेला है और न ही दूर-दूर तक कोई घोड़ा दिखाई दे रहा है। वह आश्चर्यचकित हो कुटिया में गए और साधु से बोले "महाराज! आप हमें एक बात बताइए यहां कोई घोड़ा भी नहीं, न ही तबेला है, तो यह इतनी सारी घोड़े की लीद कहा से आई!" साधु ने कहा- " राजन्! यह लीद मुझे एक राजा ने भिक्षा में दी है। अब समय आने पर यह लीद उसी को खानी पड़ेगी।"
यह सुन राजा पृथु को पूरी घटना याद आ गई। वे साधु के पैरों में गिर क्षमा मांगने लगे। उन्होंने साधु से प्रश्न किया- हमने तो थोड़ी-सी लीद दी थी पर यह तो बहुत अधिक हो गई? साधु ने कहा "हम किसी को जो भी देते है वह दिन-प्रतिदिन प्रफुल्लित होता जाता है और समय आने पर हमारे पास लौट कर आ जाता है, यह उसी का परिणाम है।" यह सुनकर पृथु की आंखों में अश्रु भर आए। वे साधु से विनती कर बोले-"महाराज! मुझे क्षमा कर दीजिए। जीवन में फिर ऐसी गलती मैं कभी नहीं करूंगा। कृपया कोई ऐसा उपाय बता दीजिए! जिससे मैं अपने अनुचित कर्मों का प्रायश्चित कर सकूं।"
राजा को अपनी गलती का पश्चाताप होता देख साधु का मन पिघल गया। उन्होंने कहा-"राजन्! एक उपाय है। आपको कोई ऐसा कार्य करना है, जो देखने मे तो गलत हो पर वास्तव में गलत न हो। इससे जब लोग आपकी निंदा करेंगे, आपका पाप हल्का होता जाएगा। आपका अपराध निंदा करने वालों के हिस्से में चला जाएगा।
यह सुन राजा पृथु ने महल में आ काफी सोच-विचार किया और अगले दिन सुबह एक मदिरा की बोतल लेकर चौराहे पर बैठ गए। सुबह-सुबह राजा को इस हाल में देखकर सब लोग आपस में राजा की निंदा करने लगे। निंदा की परवाह किये बिना राजा पूरे दिन शराबियों की तरह अभिनय करते रहे।
इस पूरे कृत्य के पश्चात जब राजा पृथु पुनः साधु के पास पहुंचे, तो लीद के ढेर के स्थान पर एक मुट्ठी लीद देख आश्चर्य से बोले "महाराज! यह कैसे हुआ? इतना बड़ा ढेर कहां गायब हो गया!!"
साधु ने कहा- "यह आप की अनुचित निंदा के कारण हुआ है राजन्। जिन-जिन लोगों ने सही बात जाने बिना आपकी अनुचित निंदा की है, आपका पाप उन सबमें बराबर-बराबर बंट गया है।" जब हम किसी की बेवजह निंदा करते हैं, तो हमें अपने कर्मों के साथ ही उसके पाप का बोझ भी उठाना पड़ता है। अगली बार बात को समझे बिना किसी की निंदा करने से पहले राजा पृथु की कथा का स्मरण कर लें।
ऊं तत्सत...

प्रेम-रंग-रस ओढ़ चुंदरिया

November 20, 2018 0
प्रेम-रंग-रस ओढ़ चुंदरिया
प्रार्थना जितनी गहरी होगी उतनी निःशब्द होगी। कहना चाहोगे बहुत, पर कह न पाओगे। प्रार्थना ऐसी विवशता है, ऐसी असहाय अवस्था है। शब्द भी नहीं बनते। आंसू झर सकते हैं। आंसू शायद कह पाएं...

किसी ने प्रश्न किया, “मैं प्रार्थना में बैठता हूं तो बस चुप रह जाता हूं!” यही सच है, क्योंकि परमात्मा से तो केवल एक ही नाता बन सकता है हमारा, एक ही सेतु-वह है, चुप्पी का। परमात्मा और कोई भाषा जानता नहीं, पर शब्दों पर हमारा बड़ा भरोसा है। उन्हीं के सहारे हम जीते हैं। हमारा सारा जीवन भाषा है। इसी लिए तुम पूछते हो, क्या यही प्रार्थना है? मैं तुम्हारी अड़चन समझता हूं। तुम सोचते होओगे गायत्री मंत्र, णमोकार, कुरान क्या पढ़कर प्रभु की स्तुति करूं। कुछ प्रशंसा करूं, परमात्मा की। कुछ निवेदन करूं हृदय का। और नहीं कर पाते हो निवेदन; जैसे जबान पर जंजीर पड़ गयी, जैसे ओंठ किसी ने सी दिए। तो चिंता उठती है, यह कैसी प्रार्थना! न बोले न चाले, तो उस तक आवाज कैसे पहुंचेगी? उस तक आवाज पहुंचाने की जरूरत ही नहीं है।
दूलनदास ने कहा परमात्मा बहरा नहीं है! तुम चिल्लाओ इसकी कोई जरूरत नहीं है।
एक मंद आभास मात्र से मन सरवर का जल लहराया,
तुमको ही आराध्य मानकर तेरे तट से जा टकराया।
लेकिन कुछ ऐसा लगता है शायद तुमको पा न सकूंगा,
इतनी दूर पा रहा तुमको उड़कर भी मैं आ न सकूंगा।
कहते सभी कठिन होता है,
जग में नहीं मिलन होता है,
महामिलन को मृत्यु दान कर,
एक बार बस गले लगाओ,
फिर न कहूंगा,
सच कहता हूं।

जाने क्या हो गया हृदय को सब कुछ तेरा ही लगता है,
बिना तुम्हें पाए यह जीवन व्यर्थ और सूना लगता है।
ऐसी मन की व्याकुलता है तेरे बिन अब रहा न जाता,
तुमको सुधियों में पाकर दर्द विरह का सहा न जाता।
ओ, मेरी सुधियों के वासी,
प्रेम स्वरूप अमर अविनाशी,
कर स्वीकार साधना मेरी,
एक बार मुझको अपना लो,
फिर न कहूंगा,
सच कहता हूं।
मगर यह सिर्फ भाव हो, शब्द न बने। यह तुम्हारे भीतर घनी प्रतीति हो। शब्द तो सब चीजों को छिछला कर जाते हैं।
■ सौजन्य: ओशो गंगा

काशी सत्संग: श्रीराम का भ्राता प्रेम

November 20, 2018 0
काशी सत्संग: श्रीराम का भ्राता प्रेम

एक बार जब प्रभु श्रीराम, लक्ष्मण एवं सीता सहित चित्रकूट पर्वत की ओर जा रहे थे, तो वहां की राह बहुत पथरीली और कंटीली थी। सहसा श्रीराम के चरणों में एक कांटा चुभ गया। फलस्वरूप वे न ही रुष्ट हुए और ना ही क्रोधित हुए, बल्कि हाथ जोड़कर धरती मां से एक अनुरोध करने लगे। श्रीराम बोले- “मां, मेरी एक विनम्र प्रार्थना है तुमसे। क्या स्वीकार करोगी?”
धरती माता बोली- “प्रभु प्रार्थना नहीं, दासी को आज्ञा दीजिए।”
“मां, मेरी बस यही विनती है कि जब भरत मेरी खोज में इस पथ से गुजरे, तो तुम नरम हो जाना। कुछ पल के लिए अपने आंचल के ये पत्थर और कांटे छुपा लेना। मुझे कांटा चुभा सो चुभा, पर मेरे भरत के पांव में आघात मत करना”, विनम्र भाव से श्रीराम बोले।
श्रीराम को यूं व्यग्र देखकर धरा दंग रह गई। धरती मां ने पूछा- “भगवन्, धृष्टता क्षमा हो, पर क्या भरत आपसे अधिक सुकुमार हैं? जब आप इतनी सहजता से सब सहन कर गए, तो क्या कुमार भरत नहीं कर पाएंगे? फिर उनको लेकर आपके चित्त में ऐसी व्याकुलता क्यों?”
श्रीराम बोले- “नहीं... नहीं... माता। आप मेरे कहने का अभिप्राय नहीं समझीं। भरत को यदि कांटा चुभा तो वह उसके पांव को नहीं, उसके हृदय को विदीर्ण कर देगा।”
‛हृदय विदीर्ण?’ ऐसा क्यों प्रभु? धरती मां जिज्ञासा घुले स्वर में बोलीं।
“अपनी पीडा़ से नहीं मां, बल्कि यह सोचकर कि इसी कंटीली राह से मेरे प्रभु राम गुजरे होंगे और ये शूल उनके पगों में भी चुभे होंगे। मैया, मेरा भरत कल्पना में भी मेरी पीडा़ सहन नहीं कर सकता, इसलिए उसकी उपस्थिति में आप कमल पंखुड़ियों-सी कोमल बन जाना...।”
प्रभु के इस प्रसंग से जीवन की यह अनमोल सीख मिलती है कि रिश्ते अंदरुनी एहसास, आत्मीय अनुभूति के दम पर ही टिकते हैं। जबकि आज के समय में रिश्ते भी व्यवसायिक होते जा रहे हैं, तभी वे टिक नहीं पाते, चाहे वे खून के हो या समाज, मित्रता, व्यवहार के।
ऊं तत्सत...

प्रेम में श्वास लेना

November 19, 2018 0
प्रेम में श्वास लेना
प्रेम सदा नया होता है। वह कभी पुराना नहीं होता, क्योंकि वह कुछ इकट्ठा नहीं करता, कुछ संगृहीत नहीं करता। उसके लिए कोई अतीत नहीं है, वह हमेशा ताजा होता है, उतना ही जितना ओस कण...

प्रेम क्षण-क्षण जीता है, आणविक होता है। उसका कोई सातत्य नहीं होता, कोई परंपरा नहीं होती। प्रति पल मरता है और प्रति पल पुन:जन्मता है। वह श्वास की भांति होता है: तुम श्वास लेते हो, श्वास छोड़ते हो; फिर श्वास लेते हो, फिर छोड़ते हो। तुम उसे भीतर सम्हाल कर नहीं रखते।
यदि तुम श्वास को सम्हाल कर रखोगे, तुम मर जाओगे क्योंकि वह बासी हो जाएगी, मुर्दा हो जाएगी। वह अपनी जीवन-शक्ति, जीवन की गुणवत्ता खो देगी। प्रेम की भी वही स्थिति होती है- वह सांस लेता है, प्रति पल स्वयं को नया करता है। तो जब कोई प्रेम में रुक जाता है और सांस लेना बंद करता है, तो जीवन का समूचा अर्थ खो जाता है। और लोगों के साथ यही हो रहा है। मन इतना प्रभावी होता है कि वह हृदय को भी प्रभावित करता है और हृदय को भी मालकियत जताने को मजबूर करता है। हृदय कोई मालकियत नहीं जानता, लेकिन मन उसे प्रदूषित करता है, विषाक्त करता है।
तो इसे ख्याल रखो, अस्तित्व के प्रेम में रहो। और प्रेम श्वास-उच्छ्वास की तरह रहे। श्वास लो, छोड़ो, लेकिन ऐसे जैसे प्रेम अंदर आ रहा है और बाहर जा रहा है। धीरे-धीरे हर श्वास के साथ तुम्हें प्रेम का जादू निर्मित करना है। इसे ध्यान बनाओ: जब तुम श्वास छोड़ोगे, ऐसे महसूस करो कि तुम अपना प्रेम अस्तित्व में उंडेल रहे हो। जब तुम सांस ले रहे हो तो अस्तित्व अपना प्रेम तुममें डाल रहा है। और शीघ्र ही तुम देखोगे कि तुम्हारी श्वास की गुणवत्ता बदल रही है, फिर वह बिलकुल अलग ही हो जाती है जैसा कि पहले तुमने कभी नहीं जाना था। इसीलिए भारत में हम उसे प्राण या जीवन कहते हैं सिर्फ श्वास नहीं, वह सिर्फ आक्सिजन नहीं है। कुछ और भी है, स्वयं जीवन ही।
■ ओशो, दि ओपन डोअर # 13

काशी सत्संग: राधे-राधे क्यों!!

November 19, 2018 0
काशी सत्संग: राधे-राधे क्यों!!

तीनों लोकों में राधा की स्तुति से देवर्षि नारद खीझ गए थे। उनकी शिकायत थी कि वह तो कृष्ण से अथाह प्रेम करते हैं, फिर उनका नाम कोई क्यों नहीं लेता, हर भक्त ‘राधे-राधे’ क्यों करता रहता है। वह अपनी यह व्यथा लेकर श्रीकृष्ण के पास पहुंचे।
नारदजी ने देखा कि श्रीकृष्ण भयंकर सिर दर्द से कराह रहे हैं। देवर्षि के हृदय में भी टीस उठी। उन्होंने पूछा, ‘भगवन! क्या इस सिर दर्द का कोई उपचार है। मेरे हृदय के रक्त से यह दर्द शांत हो जाए, तो मैं अपना रक्त दान कर सकता हूं।’ श्रीकृष्ण ने उत्तर दिया, ‘नारदजी, मुझे किसी के रक्त की आवश्यकता नहीं है। मेरा कोई भक्त अपना चरणामृत यानी अपने पांव धोकर पिला दे, तो मेरा दर्द शांत हो सकता है।’
नारद ने मन में सोचा, ‘भक्त का चरणामृत, वह भी भगवान के श्रीमुख में। ऐसा करने वाला तो घोर नरक का भागी बनेगा। भला यह सब जानते हुए नरक का भागी बनने को कौन तैयार हो?’ श्रीकृष्ण ने नारद से कहा कि वह रुक्मिणी के पास जाकर सारा हाल सुनाएं, तो संभवत: रुक्मिणी इसके लिए तैयार हो जाएं। नारदजी रुक्मिणी के पास गए। उन्होंने रुक्मिणी को सारा वृत्तांत सुनाया तो रुक्मिणी बोलीं, ‘नहीं, नहीं! देवर्षि, मैं यह पाप नहीं कर सकती।’
नारद ने लौटकर रुक्मिणी की बात श्रीकृष्ण के पास रख दी। अब श्रीकृष्ण ने उन्हें राधा के पास भेजा। राधा ने जैसे ही सुना, तत्काल एक पात्र में जल लाकर उसमें अपने दोनों पैर डुबोए। फिर वह नारद से बोली, ‘देवर्षि, इसे तत्काल श्रीकृष्ण के पास ले जाइए। मैं जानती हूं कि भगवान को अपने पांव धोकर पिलाने से मुझे नरक में भी ठौर नहीं मिलेगा। पर अपने प्रियतम के सुख के लिए मैं अनंत युगों तक नरक की यातना भोगने को तैयार हूं।’ अब देवर्षि समझ गए कि तीनों लोकों में राधा के प्रेम के स्तुतिगान क्यों हो रहे हैं।
“कृष्ण-सलोना रूप है, राधा हरि का मान
देह अलौकिक गंध है, प्रेम अमर पहचान॥”
अब नारदजी ने भी अपनी वीणा उठाई और राधा राधा की स्तुति गाने लगे।
ऊं तत्सत...

स्वयं से पूछो, “मैं कौन हूं?”

November 18, 2018 0
स्वयं से पूछो, “मैं कौन हूं?”
“मैं कौन हूं?” जो स्वयं से इस प्रश्न को नहीं पूछता है, उसके लिए ज्ञान के द्वार बंद ही रह जाते हैं। उस द्वार को खोलने की कुंजी यही है। स्वयं से पूछो कि “मैं कौन हूं?” और जो प्रबलता से और समग्रता से पूछता है, वह स्वयं से ही उत्तर भी पा जाता है...

कार्लाइल बूढ़ा हो गया था। उसका शरीर अस्सी वसंत देख चुका था और जो देह कभी अति सुंदर और स्वस्थ थी, वह अब जर्जर और ढीली हो गई थी। जीवन संध्या के लक्षण प्रकट होने लगे था। ऐसे बुढ़ापे की एक सुबह की घटना है। कारलाइल स्नानगृह में स्नान के बाद जैसे ही शरीर को पोंछने लगा, उसने अचानक देखा कि वह देह तो कब की जा चुकी है, जिसे कि वह अपनी मान बैठा था! शरीर तो बिलकुल ही बदल गया है। वह काया अब कहां है, जिसे उसने प्रेम किया था? जिस पर उसने गौरव किया था, उसकी जगह यह खंडहर ही तो शेष रह गया है। पर साथ ही एक अत्यंत अभिनव-बोध भी उसके भीतर अकुंडलित होने लगा : “शरीर तो वही नहीं है, लेकिन वह तो वही है। वह तो नहीं बदला है।” और तब उसने स्वयं से ही पूछा था, “आह! तब फिर मैं कौन हूं?”
यही प्रश्न प्रत्येक को अपने से पूछना होता है। यही असली प्रश्न है। प्रश्नों का प्रश्न यही है, जो इसे नहीं पूछते, वे कुछ भी नहीं पूछते हैं और, जो पूछते ही नहीं, वे उत्तर कैसे पा सकगें? पूछो-अपने अंतरतम की गहराइयों में इस प्रश्न को गूंजने दो, “मैं कौन हूं?”
जब प्राणों की पूरी शक्ति से कोई पूछता है, तो अवश्य ही उत्तर उपलब्ध होता है। और, वह उत्तर जीवन की सारी दिशा और अर्थ को परिवर्तित कर देता है। उसके पूर्व मनुष्य अंधा है। उसके बाद ही वह आंखों को पाता है।
(ओशो के पत्र संकलन से)

काशी सत्संग: यूं टूटा कुबेर का अहंकार

November 18, 2018 0
काशी सत्संग: यूं टूटा कुबेर का अहंकार

पौराणिक कथाओं के अनुसार कुबेर को एक बार  तीनों लोकों में सबसे धनी होने पर अभिमान हो गया था। उन्होंने सोचा कि हमारे पास इतनी संपत्ति है, लेकिन कम ही लोगों को इसकी जानकारी है, क्यों न संपत्ति का प्रदर्शन करने के लिए एक भव्य भोज का आयोजन किया जाए। कुबेर ने भोज के लिए तीनों लोकों के सभी देवताओं को आमंत्रित किया गया।
भगवान शिव उनके इष्ट देवता थे, इसलिए उनका आशीर्वाद लेने वह कैलाश पहुंचे और कहा, “प्रभो! आज मैं तीनों लोकों में सबसे धनवान हूं, यह सब आप की कृपा का फल है। मैं अपने निवास पर एक भोज का आयोजन करने जा रहा हूं, कृपया आप परिवार सहित भोज में पधारने की कृपा करे।”
भगवान शिव कुबेर के मन का अहंकार ताड़ गए, बोले, “वत्स! मैं बूढ़ा हो चला हूं, कहीं बाहर नहीं जाता।” कुबेर गिड़गिड़ाने लगे, “भगवन! आपके बगैर तो मेरा सारा आयोजन बेकार चला जाएगा।” तब शिव जी ने कहा, “एक उपाय है। मैं अपने छोटे बेटे गणपति को तुम्हारे यहां भोज में जाने को कह दूंगा।” कुबेर संतुष्ट होकर लौट आए।
नियत समय पर कुबेर ने भव्य भोज का आयोजन किया। तीनों लोकों के देवता पहुंच चुके थे। अंत में गणपति आए और आते ही कहा, “मुझको बहुत तेज भूख लगी है। भोजन कहां है।” कुबेर उन्हें ले गए भोजन से सजे कमरे में। सोने की थाली में भोजन परोसा गया। क्षण भर में ही परोसा गया सारा भोजन खत्म हो गया। दोबारा खाना परोसा गया, उसे भी खा गए। बार-बार खाना परोसा जाता और क्षण भर में गणेश जी उसे चट कर जाते।
थोड़ी ही देर में हजारों लोगों के लिए बना भोजन खत्म हो गया, लेकिन गणपति का पेट नहीं भरा। वे रसोईघर में पहुंचे और वहां रखा सारा कच्चा सामान भी खा गए, तब भी भूख नहीं मिटी। जब सब कुछ खत्म हो गया, तो गणपति ने कुबेर से कहा, “जब तुम्हारे पास मुझे खिलाने के लिए कुछ था ही नहीं, तो तुमने मुझे न्योता क्यों दिया था?” कुबेर का अहंकार चूर-चूर हो गया। सच ही कहा है-
"लघुता से प्रभुता मिले
 प्रभुता से प्रभु दूर।" 
इसी लिए कभी अपनी संपत्ति, ज्ञान, प्रभाव किसी पर गर्व नहीं करना चाहिए, क्योंकि अभिमानी व्यक्ति से तो परमात्मा भी दूर हो जाते हैं।
ऊं तत्सत...

मौन का रंग

November 17, 2018 0
मौन का रंग
जीवन को संपूर्णता से जीने के लिए पहले यह जानना होगा कि आप कौन हैं? ध्यान इसी जानने की ओर एक कदम है। इस सजगता के विज्ञान की एक प्रक्रिया है...

एक बार ध्यान के मार्ग पर आपके कदम सध गए तो आप अपने, केवल अपने ढंग से अपने मार्ग पर चलने लगते हैं। जब भी आपको नीले रंग का कोई दृश्य दिखे-आकाश का नीलापन या नदी का नीलापन, तो बस शांत बैठ जाएं और उसकी नीलिमा में देखते रहें। और आपको एक गहन शांति अनुभव होगी। जब भी आप नीले रंग पर ध्यान करेंगे, एक गहन शांति आप पर उतर आएगी।
नीला रंग सबसे अधिक आध्यात्मिक रंगों में से एक है, क्योंकि वह शांति का, मौन का रंग है। वह थिरता का, विश्राम का, लीनता का रंग है। तो जब भी आप गहन शांति में होते हैं, अचानक आप भीतर एक नीली ज्योति महसूस करेंगे। और यदि आप अपने भीतर नीली ज्योति का भाव करें, तो आप एकदम शांत महसूस करेंगे। यह दोनों तरफ से काम करता है।
■ ओशो

काशी सत्संग: लोभ भल कहइ न कोउ

November 17, 2018 0
काशी सत्संग: लोभ भल कहइ न कोउ

एक राजा का जन्मदिन था। सुबह जब वह घूमने निकला, तो उसने तय किया कि वह रास्ते में मिलने वाले सबसे पहले व्यक्ति को आज पूरी तरह से खुश व सन्तुष्ट करेगा। उसे एक भिखारी मिला। भिखारी ने राजा सें भीख मांगी, तो राजा ने भिखारी की तरफ एक तांबे का सिक्का उछाल दिया। सिक्का भिखारी के हाथ से छूट कर नाली में जा गिरा। भिखारी नाली में हाथ डालकर तांबे का सिक्का ढूंढने लगा।
राजा ने उसे बुलाकर दूसरा तांबे का सिक्का दे दिया। भिखारी ने खुश होकर वह सिक्का अपनी जेब में रख लिया और वापिस जाकर नाली में गिरा सिक्का ढूंढने लगा। राजा को लगा कि भिखारी बहुत गरीब है। उसने भिखारी को फिर बुलाया और चांदी का एक सिक्का दिया। भिखारी ने राजा की जय-जयकार करते हुए चांदी का सिक्का रख लिया और फिर नाली में तांबे वाला सिक्का ढूंढने लगा। राजा ने उसे फिर बुलाया और अब भिखारी को एक सोने का सिक्का दिया। भिखारी खुशी से झूम उठा और वापिस भागकर अपना हाथ नाली की तरफ बढ़ाने लगा।
राजा को बहुत बुरा लगा, लेकिन उसे खुद से तय की गई बात याद आ गई, "पहले मिलने वाले व्यक्ति को आज खुश एवं सन्तुष्ट करना है।" उसने भिखारी को फिर से बुलाया और कहा कि मैं तुम्हें 1000 अशर्फिया देता हूं। अब तो खुश एवं सन्तुष्ट हो जाओ। भिखारी बोला- "महाराज! मैं तो खुश और संतुष्ट तभी हो सकूँगा, जब नाली में गिरा हुआ तांबे का सिक्का भी मुझे मिल जाएगा।"
भिखारी के इस बर्ताव ने राजा की आंखें खोल दी और वह समझ गया कि मनुष्य के लालच को सन्तुष्ट करना असंभव है, फिर वह अपना हो या दूसरों का। इसी कारण परमात्मा ने हमें मानव रूप का अनमोल खजाना दिया है और हम उसे भूलकर संसार रूपी नाली में तांबे के सिक्के निकालने में जीवन गंवाते जा रहे हैं।
ऊं तत्सत...

कल्पना शून्य होना ही है “ध्यान”

November 16, 2018 0
कल्पना शून्य होना ही है “ध्यान”
सत्य मनुष्य की कल्पना नहीं है- न ही परमात्मा। कल्पना से जो देखता है, वह असत्य देखता है। कल्पना तो ध्यान के बिलकुल ही विपरीत स्थिति है। कल्पना जहां शून्य होती है, ध्यान वहीं प्रारंभ होता है...

सत्य के दर्शन कल्पनाओं से नहीं, वरन सब कल्पनाएं छोड़ देने पर ही होते हैं। जो कल्पना में है, वह स्वप्न में है। वह वही देख रहा है, जो वह देखना चाहता है, - 'वह नहीं, जो सचमुच है।' एक सूफी साधु को किसी विद्यालय में ले जाया गया। उस विद्यालय में बालकों को एकाग्रता का विशेष अभ्यास कराया जाता था। कोई दस-बारह बच्चे उसके सामने लाए गए और उनमें से प्रत्येक को एक खाली सफेद परदे पर ध्यान एकाग्र करने का कहा गया और कहा गया कि मन की सारी शक्ति को इकट्ठा कर वे देखें कि उन्हें वहां क्या दिखाई पड़ता है। एक छोटा सा बच्चा देखता रहा और फिर बोला : ''गुलाब का फूल।'' उसकी आंखों से लगता था कि वह गुलाब का फूल देख रहा है। किसी दूसरे ने कुछ और कहा, तीसरे ने कुछ और। वे अपनी ही कल्पनाओं को देख रहे थे। और, कितने ऐसे बूढ़े हैं, जो कि उन बच्चों की भांति ही क्या अपनी कल्पनाओं को नहीं देखते रहते हैं? कल्पनाओं के ऊपर जो नहीं उठता, वह असल में अप्रौढ़ ही बना रहता है। प्रौढ़ता कल्पना-मुक्त दर्शन से ही उपलब्ध होती है। फिर, एक बच्चे ने बहुत देर देखने के बाद कहा, ''कुछ भी नहीं। मुझे तो कुछ भी दिखाई नहीं पड़ता!'' उसे फिर देखने को कहा गया। किंतु, वह पुन: बोला, ''क्षमा करें। कुछ है ही नहीं, तो क्या करूं!'' उसके अध्यापकों ने उसे निराशा से दूर हटा दिया और कहा कि उसमें एकाग्रता की शक्ति नहीं है। वे उनसे प्रसन्न थे, जिन्हें कुछ दिखाई पड़ रहा था। जबकि जो उनकी दृष्टि में असफल था, वही सत्य के ज्यादा निकट था। उसे, जो दिखाई पड़ रहा था, वही दिखाई पड़ रहा था।
सत्य मनुष्य की कल्पना नहीं है- न ही परमात्मा। कल्पना से जो देखता है, वह असत्य देखता है। कल्पना का नाम ध्यान नहीं है। वह तो ध्यान के बिलकुल ही विपरीत स्थिति है। कल्पना जहां शून्य होती है, ध्यान वहीं प्रारंभ होता है। और, कल्पना में नहीं, कल्पना-शून्य ध्यान में जो जाना जाता है, वही सत्य है।
(सौजन्य से : ओशो इंटरनेशनल फाउंडेशन)

काशी सत्संग: जैसा संस्कार, वैसा व्यवहार

November 16, 2018 0
काशी सत्संग: जैसा संस्कार, वैसा व्यवहार

एक राजा के पास सुंदर घोड़ी थी। कई बार युद्ध में इस घोड़ी ने राजा के प्राण बचाए और घोड़ी राजा के लिए पूरी वफादार थी। कुछ दिनों के बाद घोड़ी ने एक बच्चे को जन्म दिया। बच्चा काना पैदा हुआ, पर शरीर हृष्ट-पुष्ट व सुडौल था।
बच्चा बड़ा हुआ, बच्चे ने मां से पूछा- मां मैं बहुत बलवान हूं, पर काना हूं। यह कैसे हो गया! इस पर घोड़ी बोली- बेटा जब मैं गर्भवती थी, तब राजा ने मेरे ऊपर सवारी करते समय मुझे एक कोड़ा मार दिया, जिसके कारण तू काना हो गया। यह बात सुनकर बच्चे को राजा पर गुस्सा आया और मां से बोला- मां मैं इसका बदला लूंगा।
मां ने कहा- राजा ने हमारा पालन-पोषण किया है। तू जो स्वस्थ है, सुन्दर है, उसी के पोषण से तो है। यदि राजा को एक बार गुस्सा आ गया, तो इसका अर्थ यह नहीं है कि हम उसे क्षति पहुचाएं। मगर, उस बच्चे के समझ में कुछ नहीं आया। उसने मन ही मन राजा से बदला लेने की ठान ली।
वह लगातार राजा से बदला लेने के बारे में सोचता रहता था और एक दिन यह मौका घोड़े को मिल गया। राजा उसे युद्ध पर ले गया। युद्व लड़ते-लड़ते राजा एक जगह घायल हो गया। घोड़े के पास राजा को युद्ध के मैदान में छोड़कर भाग निकलने का पूरा मौका था।
यदि वह ऐसा करता, तो राजा या तो पकड़ा जाता या दुश्मनों के हाथों मार दिया जाता। मगर, उस वक्त घोड़े के मन में ऐसा कोई ख्याल नहीं आया और वह राजा को तुरंत उठाकर वापिस महल ले आया। इस पर घोड़े को ताज्जूब हुआ और उसने मां से पूछा- मां आज राजा से बदला लेने का अच्छा मौका था, पर युद्व के मैदान में बदला लेने का ख्याल ही नहीं आया और न ही राजा से बदला ले पाया।
मन ने गवाही नहीं दी, राजा से बदला लेने की। ऐसा क्यों हुआ? इस पर घोड़ी हंस कर बोली- बेटा तेरे खून में और तेरे संस्कार में धोखा है ही नहीं, तू जानबूझकर तो धोखा दे ही नहीं सकता है, क्योंकि तेरी नस्ल में तेरी मां का ही तो अंश है। मेरे संस्कार और सीख को तू कैसे झुठला सकता था। वाकई यह सत्य है कि जैसे हमारे संस्कार होते हैं, वैसा ही हमारे मन का व्यवहार होता है।
ऊं तत्सत...

काशी सत्संग: कबहु गर्ब न कीजिए

November 15, 2018 0
काशी सत्संग: कबहु गर्ब न कीजिए
गोस्वामी तुलसीदास जी कहते हैं-
"अहंकार अति दुखद डमरूआ
 दंभ कपट मद मान नेहरूआ।"
अर्थात: अहंकार अत्यंत दुःख देने वाला डमरू (गांठ का) रोग है। दम्भ, कपट, मद और मान नहरुआ (नसों का) रोग है इस गांठ यानी रोग से बचो।

एक दिन एक सांप, एक बढ़ई की औजारों वाली बोरी में घुस गया। घुसते समय, बोरी में रखी हुई बढ़ई की आरी उसके शरीर में चुभ गई। इससे सांप के शरीर में घाव हो गया और उसे दर्द होने लगा। दर्द से वह विचलित हो उठा। गुस्से में उसने, उस आरी को अपने दोनों जबड़ों में जोर से दबा दिया। अब उसके मुख में भी घाव हो गया और खून निकलने लगा। अब दर्द से परेशान होकर सांप क्रोधित हो उठा और उसने आरी को सबक सिखाने की ठानी। उसने अपना पूरा शरीर उस आरी के ऊपर लपेट लिया और पूरी ताकत के साथ उसको जकड़ लिया। इससे उस सांप का सारा शरीर जगह-जगह से कट गया। अंततः उसकी मृत्यु हो गई। ठीक इसी प्रकार कई बार, हम तनिक सा आहत होने पर आवेश में आकर सामने वाले को सबक सिखाने के लिए, अपने आप को अत्यधिक नुकसान पहुंचा लेते हैं।
"ज्ञान और शिक्षा, हमारे जीवन में हमारा मार्गदर्शन करते हैं, और हमारे विवेक को जागृत करते हैं। यह जरूरी नहीं कि हमें हर बात की प्रतिक्रिया देनी है, हमें दूसरों की गलतियों को नजर अंदाज करते हुए, अपने परम पथ पर अग्रसर होना चाहिए। दूसरे को उसकी गलती की सजा देने के लिए हम अपने लक्ष्य और पथ से विचलित हो सकते हैं जैसा उस सांप ने किया, क्योंकि यहां गलती सांप की थी, लेकिन वो अपने अहम के कारण आरी को दोषी मानते हुए उसे सजा देना चाहता था।"
ऊं तत्सत...

मृत्यु: भय या सत्य

November 14, 2018 0
मृत्यु: भय या सत्य

मैं देखता हूं कि अधिक लोग वस्त्र ही वस्त्र हैं! उनमें वस्त्रों के अतिरिक्त जैसा कुछ भी नहीं है। क्योंकि, जिसको स्वयं का ही बोध न हो, उसका होना न-होने के ही बराबर है...

बात यह भी है कि जो मात्र वस्त्र ही वस्त्र हैं, उन्हें क्या मैं जीवित कहूं! नहीं मित्र, वे मृत हैं और उनके वस्त्र उनकी कब्रें हैं। एक अत्यंत सीधे और सरल व्यक्ति ने किसी साधु से पूछा, ''मृत्यु क्या है? और मैं कैसे जानूंगा कि मैं मर गया हूं?'' उस साधु ने कहा, ''मित्र जब तेरे वस्त्र जीर्ण-शीर्ण हो जावें, तो समझना कि मृत्यु आ गई है।'' उस दिन से वह व्यक्ति जो वस्त्र पहनता था, उनकी देखभाल में ही लगा रहने लगा। उसने नहाना धोना भी बंद कर दिया, क्योंकि बार-बार उन वस्त्रों को निकालने और धोना उन्हें अपने ही हाथों क्षण करना था। उसकी चिंता ठीक ही थी, क्योंकि वस्त्र ही उसका जीवन जो थे!
लेकिन, वस्त्र तो वस्त्र हैं और एक दिन वे जीर्ण-शीर्ण हो ही गए। उन्हें नष्ट हुआ देख वह व्यक्ति असहाय रोने लगा, क्योंकि उसने जाना कि उसकी मृत्यु हो गई है! उसे रोते देख लोगों ने पूछा कि क्या हुआ है! तो वह बोला, ''मैं मर गया हूं, क्योंकि मेरे वस्त्र फट गए हैं।''
यह घटना कितनी असंभव और काल्पनिक मालूम होती है! लेकिन, मैं पूछता हूं कि क्या सभी मनुष्य ऐसे ही नहीं हैं? और क्या वे वस्त्रों के नष्ट होने को ही स्वयं का नष्ट होना नहीं समझ लेते हैं?
शरीर वस्त्रों के अतिरिक्त और क्या हैं! और, जो स्वयं को शरीर ही समझ लेते हैं, वह वस्त्रों को ही जीवन समझ लेते हैं। फिर, इन वस्त्रों का फट जाना ही जीवन का अंत मालूम होता है। जबकि, जो जीवन है- उसका न आदि है न अंत है। शरीर का जन्म है और शरीर की ही मृत्यु है। वह जो भीतर है, शरीर नहीं है। वह जीवन है। उसे जो नहीं जानता, वह जीवन में भी मृत्यु में है। और, जो उसे जान लेता है, वह मृत्यु में भी जीवन को पाता है।
(सौजन्य से : ओशो इंटरनेशनल फाउंडेशन)

काशी सत्संग: अहंकार का रहस्य

November 14, 2018 0
काशी सत्संग: अहंकार का रहस्य

एक राजा था। उसकी एक लड़की थी। जब राजकुमारी बड़ी हुई, तो रानी को उसके विवाह की चिंता होने लगी। राजा के महल में एक जमादारिन सफाई करने आती थी। एक दिन रानी को उदास देखकर उसने उनकी उदासी का कारण पूछा, तो रानी ने कहा- क्या कहूं? लड़की बड़ी हो गई है। उसके ब्याह की चिंता मुझे रात-दिन खाए जा रही है।
सुनकर जमादारिन हंस पड़ी- रानी जी, आप चिंता क्यों करती हैं, मेरा लड़का जो है।
उसकी बात सुनकर रानी को बड़ा बुरा लगा। उसने कहा- खबरदार, जो ऐसी बात मुंह से निकाली! जमादारिन चली गई। अगले दिन उसने पूछा - कोई लड़का मिला? रानी ने कहा- नहीं। जमादारिन बोली- आप तो बेकार परेशान होती हैं, मेरे लड़के की बराबरी कोई नहीं कर सकता। रानी और ज्यादा नाराज हुई और उसे महल से निकलवा दिया।
रात को रानी ने राजा को जमादारिन की गुस्ताखी बताई। राजा ने पूछा- वह कहां खड़े होकर बात कर रही थी? रानी ने बता दिया। राजा ने कहा- रानी तुम समझती नहीं, वो वाक्य जमादारिन नहीं और कोई बोलता था। रानी ने आश्चर्य से कहा- और कोई वहां था ही नहीं!
राजा ने कहा- अच्छा!
अगले दिन राजा ने वह जगह खुदवाई तो वहां अशर्फियों से भरे कलश निकले। कलश निकलवाकर राजा ने रानी से कहा- अब तुम जमादारिन से बात करना।
दूसरे दिन जमादारिन आई, तो रानी ने बेटी के ब्याह की चर्चा चलाई। जमादारिन ने कोई जवाब नहीं दिया| रानी ने कहा- अरे तेरे लड़के का क्या हुआ? जमादारिन गिड़गिड़ाकर बोली- रानी जी, कहां आप और कहां हम!
रानी समझ गई कि जमादारिन के अहंकार का रहस्य क्या था।
ऊं तत्सत...

संयम: सत्य का द्वार

November 13, 2018 0
संयम: सत्य का द्वार
तुम कानों से नहीं सुनते, मन से सुनते हो; मन से भी नहीं सुनते, अपनी आत्मा से सुनते हो। प्रयत्न करो कि केवल कानों से ही सुनो। मन को कानों की सहायता करने की जरूरत न पड़े। ऐसी समाधि में ही संयम है...

संयम क्या है? अस्पर्श-भाव संयम है। तटस्थ साक्षी-भाव संयम है। संसार में 'होना' और साथ ही 'नहीं-होना' संयम है। एक बार कन्फ्यूशियस से येन-हुई ने पूछा, ''मैं मन पर संयम रखने के लिए क्या करूं?'' कन्फ्यूशियस ने कहा, ''तुम कानों से नहीं सुनते, मन से सुनते हो; मन से भी नहीं सुनते, अपनी आत्मा से सुनते हो। प्रयत्न करो कि केवल कानों से ही सुनोगे। मन को कानों की सहायता करने की जरूरत न पड़े। तब शून्यावस्था में आत्मा बाह्य प्रभावों को अक्रियाता से ही ग्रहण करेगी। ऐसी समाधि में ही संयम है। और ऐसी अवस्था में ही भगवान का निवास है।''
येन-हुई ने कहा, ''किंतु इस भांति तो मरा व्यक्तित्व ही खो जाएगा? क्या शून्यावस्था का यही अर्थ नहीं है?'' कन्फ्यूशियस बोला, ''हां, यही अर्थ है। सामने, उस झरोखे को देखते हो? इसके होने से यह कक्ष प्राकृतिक सौंदर्य से जगमगा उठा है। परंतु, प्राकृतिक दृश्य बाहर ही हैं। चाहो तो अपने कानों और अपनी आंखों का प्रयोग अपने अंतर को इसी भांति ज्योतित करने के लिए कर सकते हो। इंद्रियों को झरोखा बनाओ और स्वयं शून्य हो रहो। इस अवस्था को ही मैं संयम कहता हूं।''
मैं आंखों से देखता हूं, कानों से सुनता हूं, पैरों से चलता हूं- और फिर भी 'मैं' सबसे दूर हूं, वहां न देखना है, न सुनना है, न चलना है। इंद्रियों से जो भी आता हो, उससे अलिप्त और तटस्थ खड़े होना सीखो। इस भांति अस्पर्श में प्रतिष्ठित हो जाने का नाम संयम है। और, संयम सत्य का द्वार है।
(सौजन्य से : ओशो इंटरनेशनल फाउंडेशन)

काशी सत्संग: गुरु आज्ञा, गिरिधारी को भी शिरोधार्य

November 13, 2018 0
काशी सत्संग: गुरु आज्ञा, गिरिधारी को भी शिरोधार्य

“गुरु को सिर राखिये, चलिये आज्ञा माहिं।
कहैं कबीर ता दास को, तीन लोकों भय नाहिं॥”

वृंदावन में एक संत के पास कुछ शिष्य रहते थे, उनमें से एक शिष्य अल्प बुद्धि था। एक बार गुरु देव ने सभी शिष्यों को अपने पास बुलाया और सबको एक मास के लिए ब्रज में अलग-अलग स्थान पर रहने की आज्ञा दी। गुरु ने उस अल्प बुद्धि को बरसाने जाकर रहने को कहा, तो उसने पूछा- बाबा! वहां मेरे रहने-खाने की व्यवस्था कौन करेगा? गुरु ने हंस कर कह दिया- राधा रानी।
कुछ दिनों बाद एक-एक करके सब बालक लौट आए, पर वो अल्प बुद्धि बालक नहीं लौटा। गुरु को उसकी चिंता हुई के दो मास हो गए बालक अभी तक नहीं लौटा। गुरुदेव अपने शिष्य की सुध लेने बरसाने आ गए। उन्होंने देखा एक सुंदर सी कुटिया के बाहर बैठा बालक बहुत ही सुंदर भजन गा रहा है। बाबा ने सोचा क्यों ना इसी से अपने शिष्य का पता पूछा जाए। बाबा जैसे ही उसके पास पहुंचे, बालक उठ कर उनके चरणों में गिर गया। वह बोला, “आप आ गए गुरु देव!” गुरु ने उसे पहचान लिया और आश्चर्य से भर उठे, तब शिष्य  बोला- “गुरुदेव आपके कथनानुसार किशोरी जी ने मेरे रहने एवं खाने-पीने की व्यवस्था की। उन्होंने ही मुझे ठीक किया, फिर भजन करना भी सिखाया।”
बाबा अपने शिष्य पर बरसती किशोरी जी की कृपा को देख खूब प्रसन्न हुए और मन ही मन सोचने लगे, “मेरे कारण मेरी किशोरी जी को कितना कष्ट हुआ। उन्होंने मेरे शब्दों का मान रखते हुए मेरे शिष्य पर अपनी सारी कृपा उड़ेल दी। इसी लिए कहते हैं कि गुरु की बात तो स्वयं गिरिधारी भी नहीं टालते हैं। 
ऊं तत्सत...