सियासी लोभ की उपज “जिन्ना” - Kashi Patrika

सियासी लोभ की उपज “जिन्ना”

मुहम्मद अली जिन्ना जब राजनीति में आए, तो पहले-पहल अगली पीढ़ी के एक तेजतर्रार नुमाइंदे के रूप में उभरे, तब वे दादाभाई नौरोजी के पर्सनल सेक्रेटरी थे
और फिर एनी बेसेंट की होम रूल लीग के एक महत्वपूर्ण स्तम्भ भी। गांधीजी के कांग्रेस में आने के बाद जिन्ना बदलते गए और कांग्रेस से अलग हो गए। तकरीबन डेढ़ दशक बाद जब वो भारतीय राजनीति में सक्रिय होकर लौटे पहले वाले जिन्ना नहीं रहे। सत्ता लोभ ने उन्हें पूरी तरह बदल दिया था।

मुहम्मद अली जिन्ना की जिंदगी को साफ तौर पर दो हिस्सों में बांटा जा सकता है. एक 1937 के पहले के जिन्ना जिन्हें गोखले से लेकर सरोजिनी नायडू तक हिंदू- मुस्लिम एकता का दूत मानते थे. एक जिन्ना वो हैं जो गांधी के आगमन के पहले तक स्वाधीनता सेनानियों की अगली पीढ़ी के तेजतर्रार नुमाइंदे माने जाते थे. जिन्ना की जिंदगी का एक शुरुआती पन्ना है कि वे भारत के पितामह कहे जाने वाले दादाभाई नौरोजी के पर्सनल सेक्रेटरी थे और फिर एनी बेसेंट की होम रूल लीग के एक महत्वपूर्ण स्तम्भ भी.

मुस्लिम लीग के शुरुआती दौर में उन्होंने उसे कांग्रेस के करीब लाने की कोशिश की और 1916 का कांग्रेस- मुस्लिम लीग का लखनऊ समझौता लोकमान्य तिलक और जिन्ना के साझे प्रयासों का परिणाम था.

गांधी के आने के बाद जिन्ना सहित बिपन चंद्र पाल, एनी बेसेंट और जीएस खपर्डे जैसे अन्य बड़े नेता कांग्रेस से अलग हो गए. उसकी वजह थी कि वो लोग आंदोलन के उसी पुराने ढर्रे पर चलना पसंद करते थे जहां कानून का रत्ती भर भी उल्लंघन गलत माना जाता था.

इस तरह जिन्ना ने राजनीतिक तौर-तरीकों के मामले में खुद को पिछली पीढ़ी के स्वाधीनता सेनानियों के ज्यादा करीब पाया. गांधी के तौर-तरीके जिन्ना के हिसाब से राजनीतिक अराजकता की ओर ले जाने वाले थे. उसके बाद जिन्ना राजनीतिक नेपथ्य में चले गए और जब भी राजनीतिक परिदृश्य पर चमके, भारत के मुस्लिमों का प्रवक्ता बनकर ही चमके.

1930 के दशक के मध्य से उन्होंने मुस्लिम लीग को एक नई राजनीतिक ऊर्जा प्रदान करने का निश्चय किया. तकरीबन डेढ़ दशक बाद जब वो भारतीय राजनीति में सक्रिय होकर आये तो यह पहले के जिन्ना नहीं थे. इनके पास राजनीति का एक वैकल्पिक नक्शा था जो आक्रामक मुस्लिम सांप्रदायिकता की पैरवी करता था.

जिन्ना ने इस बार आकर कांग्रेस को हिंदुओं का संगठन सिद्ध करने की कोशिशें कीं. गांधी को हर तरह से हिंदुओं का नेता कहकर उनकी खिल्ली उड़ाई. मौलाना आजाद सरीखे कांग्रेस के मुसलमान नेताओं को गद्दार बताने की मुहिम का नेतृत्व किया.

इस तरह जिन्ना अब एक उदार सांप्रदायिक की तरह मुस्लिम हितों की पैरवी करने वाले नेता बनने को तैयार नहीं थे. इस दफा वो मुस्लिम सांप्रदायिकता को नए नाखून और नए दांत लगाकर निकले थे.

इसीलिए जब 1937 के चुनावों में मुस्लिम लीग बुरी तरह हार गई तो वो कांग्रेस पर दबाव बनाने लगे कि वो यूनाइटेड प्रोविंस (आज के उत्तर प्रदेश) में मुस्लिम लीग को मुसलमानों के प्रतिनिधि के तौर पर सरकार में शामिल करे. इससे यह साबित हो जाता कि कांग्रेस सिर्फ हिंदुओं की नुमाइंदगी करती है जबकि मुस्लिम लीग ही मुसलमानों की इकलौती प्रतिनिधि है.

दरअसल जिन्ना की मुख्य चिंता कांग्रेस का मुस्लिम मास कांटेक्ट प्रोग्राम था. 1936 से मुसलमानों को कांग्रेस से जोड़ने के लिए चलाये जा रहे इस अभियान को कई राज्यों में उल्लेखनीय सफलता मिल रही थी. सिर्फ यूनाइटेड प्रोविंस में ही 1937 के अंत तक तकरीबन 30,000 मुस्लिम कार्यकर्ता कांग्रेस में शामिल हुए थे. यही हाल पंजाब और पश्चिमोत्तर सीमाप्रांत जैसे राज्यों का भी था.

कांग्रेस और मुस्लिम लीग अलग-अलग चुनाव लड़ी थीं और दोनों दलों के बीच किसी तरह का कोई औपचारिक गठबंधन नहीं हुआ था. कांग्रेस के सामने जिन्ना के इस प्रस्ताव को मानने की कोई प्रत्यक्ष वजह नहीं थी इसलिए नेहरू और कांग्रेस ने जिन्ना का प्रस्ताव अंततः ठुकरा दिया.

यही वो मोड़ है जिस पर आकर जिन्ना ने पहली बार सांप्रदायिकता को एक उग्र हिंसक राजनीति में तब्दील कर दिया. सिर्फ यूनाइटेड प्रोविंसेज में ही 1938 के साल में बड़े और छोटे सांप्रदायिक दंगों की बाढ़ सी आ गई. इन दंगों में जहां मुस्लिम लीग सबसे प्रभावी कारक थी तो छोटे-छोटे हिंदू सांप्रदायिक दल इसमें जूनियर पार्टनर की भूमिका अदा कर रहे थे.

एक तरफ तो पूरे राज्य का सांप्रदायिक तानाबाना छिन्न-भिन्न कर दिया गया तो दूसरी और इन्हीं दंगों के आधार पर मुस्लिम लीग की पीरपुर कमिटी ने प्रोपेगंडा किया कि कांग्रेस की ‘हिंदू’ सरकार में मुसलमान सुरक्षित नहीं हैं.

1938-39 के इन दो सालों में जिन्ना ने वो बुनियाद डाली जिस पर 1940 के बाद मुसलमानों के लिए अलग राष्ट्र की इमारत तामीर की गई. अगस्त 1946 से कलकत्ता से शुरू हुए भीषण सांप्रदायिक दंगे दरअसल 1938-39 में हुए इन प्रयोगों का बड़े स्तर पर क्रियान्वयन मात्र था. फिर तो रावलपिंडी, गढ़मुक्तेश्वर, नोआखाली सहित देश की तमाम जगहों पर लाखों जानें सांप्रदायिक पागलपन की भेंट चढ़ गईं.


नव-साम्राज्यवादी इतिहास लेखन ने शरारतन भारत के बंटवारे जिन्ना की भूमिका को कम करके आंकने का दृष्टिकोण प्रचलित किया है. उनका कहना है कि जिन्ना इसलिए कांग्रेस से अलग हो गये थे क्योंकि गांधी के नेतृत्व में कांग्रेस बहुसंख्यक हिंदू हितों की पैरवी करती थी. विभाजन पर उनका कहना है कि जिन्ना तो बंटवारा चाहते ही नहीं थे वो तो उनके लिए एक सौदेबाजी का हथियार था.

अब अगर जिन्ना इतने ही सेक्युलर थे और उन्हें गांधी के नेतृत्व वाली कांग्रेस की ‘सांप्रदायिकता’ से इतनी ही दिक्कत थी तो फिर एक खालिस सेक्युलर पार्टी बनाकर देश को कांग्रेस की सांप्रदायिकता से बचा लेते. वो एक कद्दावर शख्सियत थे और चाहते तो ऐसा कर सकते थे. लेकिन इसके उलट उन्होंने खुद घोर नास्तिक होने के बावजूद धर्म के नाम पर सांप्रदायिकता के ऐसे जिन्न को खोल दिया जिसने इस उपमहाद्वीप में लाखों प्राणों को लील लिया.

जिन्ना को सेक्युलर सिद्ध करने के लिए उनका पाकिस्तान असेंबली में दिया गया ऐतिहासिक भाषण बहुत उद्धृत किया जाता है जिसमें वो पाकिस्तान को एक धर्मनिरपेक्ष राज्य बनाने की बात करते हैं. अगर जिन्ना के पाकिस्तान में अल्पसंख्यकों को कोई भय नहीं था तो फिर गांधी-नेहरू-पटेल-मौलाना आजाद के भारत में अल्पसंख्यक कैसे असुरक्षित थे?

या फिर कहा जा सकता है कि अगर जिन्ना की यही हसरत थी तो पिछले दस साल इस्लामिक राष्ट्र का सपना दिखाकर वो ठगों की तरह लोगों को क्यों बरगला रहे थे? यह भाषण ये जरूर सिद्ध करता है कि जिन्ना पिछले दस साल से जो कुछ कर रहे थे उनको पता था कि वो सरासर गलत है.
(साभार : thewirehindi)

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