एक बहुत न्यायप्रिय राजा थे। वे अपना राज्यकोश प्रजा के हित साधन मेँ लगा देते थे। उनके राज्य में चारों ओर खुशहाली थी। एक बार पड़ोसी देश के राजा ने उन पर आक्रमण कर दिया और उन्हें अपनी पत्नी-बच्चों के साथ राजपाट छोड़कर भागना पड़ा। राजा सपरिवार भटकते-भटकते पड़ोसी राज्य में पहुंचे। वहां कामकाज करने लगे, लेकिन उससे परिवार का पेट भरना मुश्किल हो रहा था। उसी नगर में एक सेठ रहता था, जो लोगों के पुण्य खरीदता था। लोग अपने पुण्य बताते सेठ उस पुण्य को अपने धर्म कांटे पर तौलता और पुण्य के बराबर स्वर्ण मुद्राएं दे देता। रानी को जब यह बात पता चली,उसने राजा से कहा- जब आप राजा थे, तब आपने असंख्य पुण्य किए थे। आप अपने कुछ पुण्य सेठ को बेच दीजिए, जिससे हमारा और हमारे बच्चोँ का निर्वाह सरलता से हो सके।
राजा सेठ के पास पहुंचे और अपने आने का प्रयोजन बताया। सेठजी बोले कि ठीक है महाराज! आप अपने पुण्य कर्म बताएं। मैं उन्हें अपने धर्मतुला पर तौल कर, जितना माप आएगा, उतनी स्वर्ण मुद्राएं आपको दे दूंगा। राजा ने अपने पूर्व के पुण्यकर्म बताते गए और सेठजी उसे धर्मतुला पर तौलते गए। लेकिन यह देखकर राजा दंग रह गए कि धर्मतुला पर उनके हिस्से मेँ कुछ भी पुण्य नहीं है। अब सेठजी राजा को फटकारते हुए बोले-“ राजन! आपने राजा होकर भी कोई ऐसा पुण्य नहीं किया, जिसका फल शेष बचा हो।” राजा निराश होकर जाने लगे, तभी सेठ ने उन्हें बुलाया और बोले कि जब तक आप राजा थे, तब तक प्रजा के हित के लिए आपने जो कुछ भी किया, वह आपका राजधर्म था। जो कुछ आपने प्रजा के लिए किया वह आपका कर्तव्य था। इसी लिए कर्तव्य के बदले आप पुण्य के भागीदार नहीं बनते। आपने राज्यपाट गंवाने के बाद कोई पुण्य किया हो, तो बताएं। राजा याद करने लगे, लेकिन कुछ याद नहीं आ रहा था। आखिर भूखे पेट सोने वाला क्या पुण्य कर सकता है। सहसा उन्हें याद आया। एक रात जब उनका परिवार भूखा था। किसी तरह से दो रोटियों का बन्दोबस्त हुआ, तभी एक भिखारी आकर गिड़गिड़ाने लगा। भूख के कारण उसका शरीर जीर्णशीर्ण हो गया था। राजा ने दोनों रोटियां उस भिखारी को दे दी और उनका पूरा परिवार भूखे पेट सो गया। सेठ ने यह पुण्य जब अपने धर्मतुला पर रखा और स्वर्ण मुद्राओँ से उसे तौलने लगा, तो सेठजी के माथे पर पसीना आ गया। उसने अपनी सारी सम्पत्ति तुला पर रख दी, फिर भी दो रोटियों का पलड़ा भारी था। सेठ ने राजा से कहा- “हे महात्मा! अब इससे ज्यादा धन मेरे पास नहीं है। आप मुझ पर कृपा कर इस दान का फल मुझे दे दीजिए और मेरी जीवन भर की कमाई लाखों स्वर्ण मुद्राए स्वीकार कीजिए।” हमें भी माता-पिता, सन्तान, परिवार, कार्यक्षेत्र से जुड़े अपने कर्तव्यों को पुण्य समझने की भूल नहीं करनी चाहिए।
ऊं तत्सत...
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