श्री गंगालहरी - Kashi Patrika

श्री गंगालहरी


श्री गंगालहरी 

प्रपधन्ते लोकाः कति न भवतीमत्रभवती-
मुपाधीस्तत्रायं  स्फुरती  यदभीष्टं वितरसि  । 
शपे तुभ्यं मातर्मम तु पुनरात्मा सुरधुनि   
स्वभावादेव त्वय्यमितमनुरागं विधृतवां   ॥ ४१॥


ललाटे या लोकैरिह खलु सलीलं तिलकता
तमो हन्तुं धक्ते  तरुणतरमार्तण्डतुलनां   ।
विलुम्पन्ती सधो  विधिलिखितदुर्वर्णसरणिं
 त्वदीया सा मृत्स्ना मम हरतु कृत्स्नामपि  शुचं ॥ ४२॥


आज हम श्री गंगालहरी के दो और श्लोकों को प्रकाशित कर रहें हैं। 

- संपादक की कलम से 




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