श्री गंगालहरी - Kashi Patrika

श्री गंगालहरी


श्री गंगालहरी 

श्वपाकानां व्रातैरमितविचिकित्साविचलितै-
र्विमुक्तानामेकं किल सदनमेनःपरिषदां ।
अहो मामुद्धर्तुं जननि घटयन्त्याः परिकरं
तव  श्लाघां  कर्तुं कथमिव समर्थो नरपशुः ॥ २९॥


न कोऽ प्येतावन्तं खलु समयमारभ्य मिलीतो 
यदुद्धारादाराभ्दवति जगतो विस्मयभरः । 
इतीमामीहां ते मनसि चिरकालं स्थितवती-
मयं सम्प्राप्तोऽहं सफलयितुमम्ब प्रणय नः ॥ ३०॥

आज काशी पत्रिका के माध्यम से हम श्री गंगालहरी के दो और श्लोकों को प्रकाशित कर रहें हैं।  

- संपादक की कलम से 

No comments:

Post a Comment