काशी सत्संग: प्रत्यक्षम् किम् प्रमाणम् - Kashi Patrika

काशी सत्संग: प्रत्यक्षम् किम् प्रमाणम्

यदि सन्ति गुणा: पुंसां 
विकसन्त्येव ते स्वयं, 
म्नहि कस्तूरिकामोद: 
शपथेन विभाव्यते। 

भावार्थ : कस्तूरी की गन्ध को सिद्ध नही करना पड़ता, वह तो स्वयं फैलकर अपनी सुगन्ध से वातावरण को सुवासित कर देती है। उसी प्रकार गुणवान् तथा प्रतिभावान मनुष्य के गुण अपने आप फैल जाते है, उनका प्रचार नही करना पड़ता।


नदी जब निकलती है, तो कोई नक्‍शा पास नहीं होता कि "सागर" कहां है। वह स्वयं बिना नक्‍शे के सागर तक पहुंच जाती है। इसलिए "कर्म" करते रहिए, नक्शा तो भगवान पहले से ही बनाकर बैठे है, हमको तो सिर्फ "बहना" ही है। इसीलिए संतों ने कहा है कि खुश रहने से ज्यादा बड़ी चीज कुछ नही। एक आनंद से भरे व्यक्ति को इससे कोई फर्क नहीं पड़ता कि वह अमीर है या गरीब। वह मंदिर, मस्जिद, गुरुद्वारे या गिरजाघर से ऊपर चला जाता है। वह चीजों और लोगों को उदारता की नजरों से देखने लगता है।

किस्मत सखी नहीं, फिर भी रुठ जाती है! बुद्वि लोहा नहीं, फिर भी इसमें जंग लग जाती है! आत्मसम्मान शरीर नहीं, फिर भी घायल हो जाता है और इंसान मौसम नहीं, फिर भी बदल जाता है। इसीलिए यह ध्यान रखें कि जीवन में करने के लिए बहुत सारे अच्छे काम है, फिर हम दूसरे की बुराई में क्यों समय गवाते है। मुस्कान और मदद दो ऐसे इत्र हैं, जिन्हें जितना अधिक आप दूसरों पर छिड़केंगे, उतने ही सुगन्धित आप स्वंय होंगे।
ऊं तत्सत... 

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