एक उदास साँझ/ अज्ञेय - Kashi Patrika

एक उदास साँझ/ अज्ञेय

अज्ञेय “ आँगन के पार द्वार”


सूने गलियारों की उदासी।
गोखों में पीली मन्द उजास
स्वयं मूर्च्छा-सी।
थकी हारी साँसे, बासी।

चिमटी से जकड़ी-सी नभ की थिगली में,
तारों की बिसरी सुइयाँ-सी
यादें : अपने को टटोलतीं
सहमीं, ठिठकी, प्यासी।

हाँ, कोई आकर निश्चय दीया जलाएगा
दिपता-झपता लुब्धक सूने में कभी उभर आएगा।
नंगी काली डाली पर नीरव
धुँधला उजला पंछी मँडराएगा।
हाँ, साँसों ही साँसों में रीत गया
अंतर भी भर आएगा।
पर वह जो बीत गया- जो नही रहा-
वह कैसे फिर आएगा?

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