क्या 2019 लोकसभा चुनावों का मुख्य मुद्दा विकास होगा ? - Kashi Patrika

क्या 2019 लोकसभा चुनावों का मुख्य मुद्दा विकास होगा ?

समय के साथ 2019 लोकसभा चुनावों की सुगबुगाहट बढ़ती जा रही हैं; और स्थितियां भी समय के साथ भारत के सबसे ऐतिहासिक लोकसभा चुनाव के मुख्य मुद्दे को आगे लाता जा रहा हैं। इन सब के बीच सभी की जुबान पर केवल एक सवाल हैं कि क्या 2019 लोकसभा का चुनाव विकास के मुद्दे पर लड़ा जाएगा।


एक ओर जहाँ मोदी सरकार के कार्यकाल में पिछले 4 साल में हुए विकास की कलई खुलती जा रही हैं, जिसमें धरातल पर अमूल-चूल परिवर्तन के मोदी सरकार के दावे खोखले नजर आ रहे हैं, तो वही विपक्ष ने किसान की आय दिन होती आत्महत्या और युवाओं में बढ़ती बेरोजगारी के मुद्दे पर वर्तमान सरकार को चारों तरफ से इतना घेर दिया हैं कि इस बार मोदी के लिए विकास के खोखले वादे करना कठिन होगा।

2019 चुनाव इसलिए भी महत्वपूर्ण होगा, क्योंकि यह पहली ऐसी सरकार होगी, जो कांग्रेस के इतर पूर्ण बहुमत में रहते हुए अपने पांच साल पूर्ण करेगी। ये पहला मौका होगा बीजेपी के लिए कि वो आम जनता के इस  दृढ विश्वास को हिला सके कि केंद्र की राजनीति कांग्रेस के बिना नहीं चल सकती। देश के सबसे बुरे दौर में देश की आम जनता ने कांग्रेस पर विश्वास कर उसे मोदी सरकार से पहले 10 साल देश की बागडोर सौंपी थी। तो क्या मोदी यह कारनामा दोहरा पाएगी, जिसमें कांग्रेस के इतर कोई सरकार 10 साल लगातार केंद्र की सत्ता में रहकर देश का संचालन करें।

अगर आम जनता की सुनी जाए, तो आम जनता तो यही चाहती हैं कि विकास केंद्र चुनावों का मुख्य मुद्दा बना रहे। अगर जनता को कुछ न भी मिले, तब भी एक आस तो मिलती ही हैं कि उन्होंने जिसे सत्ता सौपा हैं वो कम से कम उनके बारे में कुछ न करे, पर बात तो करता हैं, जो भविष्य में उनके सपने पूरे करने की ओर कभी तो कदम उठाएगा।

आइये जानते हैं क्या 2019 में विकास मुख्य मुद्दा बन सकता हैं -

जुमलों का विकास
मोदी ने अपने चार साल के शासन में जितने वादे किए उतनी ही सरकारी योजनाएं भी लाए। 120 से अधिक केंद्रीय योजनाओं वाली मोदी सरकार किसी भी योजना के सुचारु रूप से लागू होने और क्रियान्वयन पर इतना समय नहीं दे पाई कि वो उन योजनाओं की सार्थकता जांच सके। नतीजतन विकास तो हुआ पर जुमलों का; जिसमें भारत को एक विकसित राष्ट्र नहीं बताया गया, बस इतना भर कम था। पिछले चार सालों में बेरोजगारी अपने चरम पर पहुंच गई, महिलाओं के प्रति अपराध में कमी नहीं आ पाई, किसानों की स्थिति जस की तस बनी रही, पैसा लुढ़ककर डॉलर के मुकाबले अपने सबसे निम्नतम स्तर पर पहुंच गया, गरीबों की स्थिति जस की तस बनी रही और मध्यम वर्ग भी गरीबी का दंश झेलने के मुहाने पर खड़ा हैं। गंगा अपनी सफाई की आस लगाए ताकती रही और लोकतंत्र पूंजीपतियों के हाथ में फिसलता चला गया। इन सब के बीच अगर किसी का विकास हुआ तो वो हैं राजनीतिक जुमलों का जिसने पिछले पांच सालों में देश को झूठे वादों और मुकरने वाली एक ऐसी सोच दी जिससे भारत शायद ही उभर पाए।

आम जनता समझ गई विकास में खोट है

2014 में मोदी जब केंद्र की सत्ता में बैठे तो आम जनता को ये विश्वास हो चला कि अब उनका विकास होगा। पर शायद आम जनता ये भूल गई कि हर चीज की कीमत चुकानी पड़ती हैं। अब जब पिछले चार सालों में आम जनता ने जान लिया कि बीजेपी के विकास के मूल में केवल निजीकरण और पूंजीवाद को बढ़ावा देना हैं, तो अब खुद को ठगा सा महसूस कर रही हैं। विकास की एक भी मुस्कान आज आम जनता के चेहरे पर नहीं दिखाई देती। हां, अब जनता ने इस विकास को नकारना शुरू कर दिया हैं जिसमें उन्हें डर हैं कि कही उनकी आने वाली पीढ़ी फिर से गुलामी के दुष्चक्र में न फस जाए।

विकास मतलब विज्ञापन 

आम जनता अब खुलकर इस पर बोलने लगी हैं कि मोदी ने देश का विकास किया हो या नहीं; प्रचार के माध्यम से अपना और अपनी पार्टी का खुलकर प्रचार किया हैं। आज मोदी विज्ञापन के हर छोटे बड़े नुस्खों को अपना चुकें हैं और उनकी कार्यशैली में अब केवल विज्ञापन ही बचा हैं। मोदी ने केवल प्रचार के लिए देश के टैक्स पेयर का बहुत बड़ा हिस्सा विज्ञापन कंपनियों और चैनलों को दे दिया ऐसे में विकास का प्रचार तो दिखेगा ही। तो अब जब जनता ये समझ चुकी हैं कि सरकार केवल विज्ञापन के माध्यम से चल रही हैं, तो क्या वह 2019 में विज्ञापन कंपनियों के इस दबोच से बाहर निकल पाएगी। आम जनता जितनी मुखर होकर बोल रही हैं, उससे तो यही लगता हैं की अब वो विकास मतलब विज्ञापन नहीं रहने देगी।

इन सब के बीच बीजेपी और कांग्रेस पार्टी के नेताओं के हालिया बयानों पर गौर करें, तो संकेत स्पष्ट है कि 2019 के चुनावों की तैयारी में विकास कहीं पीछे छूट जाएगा और मंदिर-मस्जिद, जात-पात पर एक बार फिर राजनीति गरमाएगी। यानी, विकास की बांट जोहती जनता, फिर से वर्षों पुराने कुचक्र में फेंक दी जाएगी, जहां से “विकास” शब्द तक पहुंचने में उसे वर्षों की दूरी तय करनी पड़ी थी।
■ सिद्धार्थ सिंह

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