देश के हालात में सुधार की कोशिशें और विकास की योजनाओं की रफ्तार भले धीमी हो, लेकिन जनसंख्या में बढ़ोतरी का काम तेजी से हो रहा है। स्थिति यह है कि संसाधन मानी जाने वाली आबादी हमारे यहाँ संसाधनों की कमी का कारण बन गई है। इसे यूँ समझा जा सकता है कि भारत की भूमि का फैलाव विश्व का 2.4 फीसद है, जबकि यहाँ की जनसंख्या विश्व की कुल जनसंख्या का पांचवा हिस्सा है। इसे और ज्यादा गहराई से समझने की कोशिश करें, तो हमारा देश हर साल एक ऑस्ट्रेलिया पैदा कर रहा है। नतीजतन पहले से ही मौजूद लोगों के लिए बिजली, पानी, सड़क जैसी मूलभूत सुविधाओं की कमी है, तो बढ़ती जनसंख्या को सुविधाएं कैसे मिलेंगी!
जनसंख्या की चर्चा इसलिए कि आज से करीब तीन दशक पहले वर्ष 1989 में आज ही के दिन से विश्व की बढ़ती जनसंख्या को लेकर मंथन की शुरुआत हुई। इसी के मद्देनजर हर दस साल बाद हमारे मुल्क में जनगणना होती है। आबादी के आंकड़े ही केंद्र और राज्य सरकारों द्वारा बनाई जाने वाली योजनाओं का प्रमुख आधार होते हैं।
आंकड़ों पर नजर डालें, तो भारत और चीन की आबादी का अंतर 10 साल में 23 करोड़ 80 लाख से घटकर 13 करोड़ 10 लाख हो चुका है। जानकार बता रहे हैं कि अगले छह साल में आबादी के मामले में हम चीन को पछाड़ देंगे। और वर्ष 2025 तक भारत सबसे ज्यादा आबादी वाला देश हो जाएगा, जबकि 1,952 में परिवार नियोजन अभियान अपनाने वाला दुनिया का पहला देश भारत था।
अनियंत्रित जनसंख्या के कारण देश में सरकार द्वारा चलाई जा रही जनकल्याण योजनाओं का लाभ जन-जन तक नहीं पहुंच पा रहा है। विश्व बैंक के मुताबिक, करीब 22 करोड़ लोग हमारे मुल्क में गरीबी रेखा के नीचे हैं। मुल्क की 15 फीसदी आबादी कुपोषण का शिकार है। बच्चों में कुपोषण की दर 40 फीसदी है। 65 फीसदी आबादी के पास शौचालय तक नहीं है, जबकि 26 फीसदी आबादी निरक्षर है। जिस देश में हर साल 1.2 करोड़ लोग रोजगार के बाजार में आते हों, वहां रोजगार बड़ी चुनौती बना चुका है।
जाहिर है हालात बेहद गंभीर हैं, लेकिन आबादी को लेकर सियासत भी जारी है। इस बीच, कुछ राज्यों ने अनोखी पहल भी की। योगी आदित्यनाथ ने नवविवाहित जोड़ों के लिए शगुन योजना की शुरुआत की। असम में दो से ज्यादा बच्चे वालों को सरकारी नौकरी न मिलने की नीति बनी, तो गुजरात में दो से ज्यादा बच्चों के अभिभावकों के पंचायत चुनाव लड़ने पर रोक लगी। लेकिन नीतियां कारगर साबित नहीं हो रही हैं, सो इस दिशा में सरकार को और प्रयास करने की जरूरत है। यहाँ तक की इस संबंध में कानून बनाने पर भी विचार करना चाहिए, ताकि आबादी को संसाधन के रूप में इस्तेमाल किया जा सके, न कि जनसंख्या देश के लिए मुसीबत बनकर रह जाए।
■ संपादकीय
जनसंख्या की चर्चा इसलिए कि आज से करीब तीन दशक पहले वर्ष 1989 में आज ही के दिन से विश्व की बढ़ती जनसंख्या को लेकर मंथन की शुरुआत हुई। इसी के मद्देनजर हर दस साल बाद हमारे मुल्क में जनगणना होती है। आबादी के आंकड़े ही केंद्र और राज्य सरकारों द्वारा बनाई जाने वाली योजनाओं का प्रमुख आधार होते हैं।
आंकड़ों पर नजर डालें, तो भारत और चीन की आबादी का अंतर 10 साल में 23 करोड़ 80 लाख से घटकर 13 करोड़ 10 लाख हो चुका है। जानकार बता रहे हैं कि अगले छह साल में आबादी के मामले में हम चीन को पछाड़ देंगे। और वर्ष 2025 तक भारत सबसे ज्यादा आबादी वाला देश हो जाएगा, जबकि 1,952 में परिवार नियोजन अभियान अपनाने वाला दुनिया का पहला देश भारत था।
अनियंत्रित जनसंख्या के कारण देश में सरकार द्वारा चलाई जा रही जनकल्याण योजनाओं का लाभ जन-जन तक नहीं पहुंच पा रहा है। विश्व बैंक के मुताबिक, करीब 22 करोड़ लोग हमारे मुल्क में गरीबी रेखा के नीचे हैं। मुल्क की 15 फीसदी आबादी कुपोषण का शिकार है। बच्चों में कुपोषण की दर 40 फीसदी है। 65 फीसदी आबादी के पास शौचालय तक नहीं है, जबकि 26 फीसदी आबादी निरक्षर है। जिस देश में हर साल 1.2 करोड़ लोग रोजगार के बाजार में आते हों, वहां रोजगार बड़ी चुनौती बना चुका है।
जाहिर है हालात बेहद गंभीर हैं, लेकिन आबादी को लेकर सियासत भी जारी है। इस बीच, कुछ राज्यों ने अनोखी पहल भी की। योगी आदित्यनाथ ने नवविवाहित जोड़ों के लिए शगुन योजना की शुरुआत की। असम में दो से ज्यादा बच्चे वालों को सरकारी नौकरी न मिलने की नीति बनी, तो गुजरात में दो से ज्यादा बच्चों के अभिभावकों के पंचायत चुनाव लड़ने पर रोक लगी। लेकिन नीतियां कारगर साबित नहीं हो रही हैं, सो इस दिशा में सरकार को और प्रयास करने की जरूरत है। यहाँ तक की इस संबंध में कानून बनाने पर भी विचार करना चाहिए, ताकि आबादी को संसाधन के रूप में इस्तेमाल किया जा सके, न कि जनसंख्या देश के लिए मुसीबत बनकर रह जाए।
■ संपादकीय
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