बड़े-बड़े वादों और दिखावों के बीच देश में नागरिक सुरक्षा इन्तेजाम की स्थिति बद से बदतर होती चली जा रही हैं। ऐसा लगता है कि देश में कानून का शासन कम और भीड़तंत्र ज्यादा हावी होता जा रहा हैं। ऐसे में सुरक्षा इंतजाम में लगे सुरक्षाकर्मी भी गाहे बगाहे किसी असंवैधानिक कृत्य के लिए सुर्खियां बटोरते रहते हैं। और पहले से कमजोर सुरक्षा तंत्र को और खोखला बनाते हैं। संसद में एक प्रश्न का उत्तर देते हुए केंद्रीय मंत्री हंसराज अहीर ने स्वयं ये बात स्वीकारी हैं कि आज देश की आतंरिक सुरक्षा में लगे पुलिसकर्मियों के लगभग 5 लाख पद खाली हैं। 2017 में दिए उनके संसद में एक लिखित जबाब की माने तो देश में कुल अधिकृत 4843 पदों में से केवल 3905 आईपीएस अधिकारी ही हैं। कुल अधिकृत पुलिस बल 22,80,691 में से भी केवल 17,31,699 पद ही भरे गए हैं। ये आंकड़े यही नहीं रुकते और संयुक्त राष्ट्र के अधिकृत आंकड़ों से 67 कम हैं। संयुक्त राष्ट्र ने माना हैं कि सुरक्षा इंतेजामात के लिए हर 1 लाख व्यक्ति पर 222 पुलिसकर्मी की आवश्यकता हैं, जबकि भारत में केवल 155 ही हैं।
बहुलतावादी देश में जहाँ दिन प्रतिदिन लोगों का विश्वास कानून पर कम होता जा रहा हैं वहां ये कमी तब अखड़ती हैं जब किसी वारदात में आम नागरिक की जान चली जाती हैं। हाल फिलहाल पूरा देश मॉब लिंचिंग की घटनाओं से पटा पड़ा हैं और एक तरीके से केंद्र और राज्य सरकारों ने इन्हे रोक पाने में असमर्थता जाहिर कर दी हैं। सही हैं कि तत्कालीन स्थिति एक दिन में खराब नहीं हुई है, पर नागरिक सुरक्षा जैसे गंभीर विषय पर लगातार हो रही अनदेखी का ही नतीजा है कि आज देश में ये स्थिति उत्पन्न हुई हैं।
साल-दर-साल बढ़ता क्राइम
नेशनल क्राइम ब्यूरों की रिपोर्ट देखें, तो हर साल अपराध के आंकड़े बढ़ते चले गए और सरकारें हाथ पर हाथ धरे बैठी रही। 2016 की ही रिपोर्ट देखें तो जघन्य अपराधों की पूरे भारत में 29,75,711 मामले हैं, जो 2015 से 2.6 प्रतिशत अधिक हैं। अपराधों की कुल संख्या देखें तो, 2014 में आपराधिक मामले 45,71,663 थे, जो 2015 में बढ़कर 47,10,676 पर पहुंच गए। 2016 में अपराधों की कुल संख्या 48,31,515 के पास पहुंच गई। ये आंकड़े तब हैं जब देश में आज भी एक आम नागरिक अपराध तो झेल लेता है, पर पुलिस के पास जाने से घबराता है।
राज्य सरकार की लाचारी
पुलिस सुरक्षाबल का मामला राज्य सरकारों के अधीन होने के कारण अक्सर केंद्र इससे पल्ला झाड़ता नजर आता है और स्थिति तब बिगड़ती है, जब राज्य सरकारें फंड का रोना रोकर बची हुई भर्तियों और नागरिक सुरक्षा इंतेजामात के लिए कोई ठोस कदम नहीं उठाती। केंद्र और राज्य दोनों को यह समझना होगा कि जिस आम नागरिक से वो कर लेकर सरकार चला रहे हैं, अगर उन्हें ही वो सुरक्षा नहीं प्रदान कर सकते, तो उन्हें उनसे कर लेने का भी कोई हक़ नहीं हैं।
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