केंद्र सरकार ने अनुसूचित जाति एवं अनुसूचित जनजाति के खिलाफ होने वाले अपराधों पर दिए सर्वोच्च न्यायाल के फैसले को बदलने के लिए संसद में अध्यादेश लाने का जो फैसला किया है, वो उचित ही है। वर्तमान समय में देश में एक बार फिर से भीड़तत्र लागू हो रहा है, ऐसी स्थिति में किसी भी कानून का लचर होना देश के लिए घातक हो सकता हैं।
सर्वोच्च न्यायलय के 30 मार्च को दिए फैसले से अनुसूचित जाति एवं अनुसूचित जनजाति (अत्याचार निरोधक) अधिनियम 1989 में जो बदलाव हुए थे उनका प्रारंभिक स्थिति में आना आवश्यक था। आज भी देश में बड़े पैमाने पर अनुसूचित जाति और अनुसूचित जनजाति के खिलाफ अपराध के मामले कम नहीं हुए हैं। सर्वोच्च न्यायालय के फैसले के बाद अत्याचार निरोधक कानून के कमजोर होने की स्थिति भी बनी हुई थी।
1 अगस्त को कैबिनेट की हुई बैठक में एसटी/एससी एक्ट में संसोधन का जो फैसला सरकार ने लिया है, वो स्वागत योग्य होने के साथ ही यथार्थवादी भी है। इसमें समाज की तत्कालीन परिस्थिति को देख कर फैसला लिया गया हैं। अब जब 10 अगस्त के बाद अत्याचार निरोधक कानून अपनी मूल स्थिति में होगा तो दलित समाज अपने को ज्यादा महफूज पाएगा।
सर्वोच्च न्यायलय के फैसले के बाद अत्याचार निरोधक कानून में हुए बदलावों के विरोध में सरकार के भीतर से भी आवाज उठ रही थी। सराकर की सहयोगी एलजीपी के राम विलास पासवान ने भी 9 अगस्त को कानून में हुए बदलाव के विरोध में दलित संगठनों के बुलाए बंद का सहयोग कर यह साफ़ कर दिया था कि मामला कितना गंभीर हैं और सरकार को अगर सुचारु रूप से चलाना हैं तो इस मुद्दे को जल्द से जल्द निपटाना होगा।
अब जब सरकार ने संसद में अध्यादेश लाकर इस मामले का निपटारा करने की पहल की हैं तो समाज के एक बड़े वर्ग को राहत की सांस मिलेगी की सरकार और कठोर कानून उनकी रक्षा के लिए मौजूद हैं।
■संपादकीय
सर्वोच्च न्यायलय के 30 मार्च को दिए फैसले से अनुसूचित जाति एवं अनुसूचित जनजाति (अत्याचार निरोधक) अधिनियम 1989 में जो बदलाव हुए थे उनका प्रारंभिक स्थिति में आना आवश्यक था। आज भी देश में बड़े पैमाने पर अनुसूचित जाति और अनुसूचित जनजाति के खिलाफ अपराध के मामले कम नहीं हुए हैं। सर्वोच्च न्यायालय के फैसले के बाद अत्याचार निरोधक कानून के कमजोर होने की स्थिति भी बनी हुई थी।
1 अगस्त को कैबिनेट की हुई बैठक में एसटी/एससी एक्ट में संसोधन का जो फैसला सरकार ने लिया है, वो स्वागत योग्य होने के साथ ही यथार्थवादी भी है। इसमें समाज की तत्कालीन परिस्थिति को देख कर फैसला लिया गया हैं। अब जब 10 अगस्त के बाद अत्याचार निरोधक कानून अपनी मूल स्थिति में होगा तो दलित समाज अपने को ज्यादा महफूज पाएगा।
सर्वोच्च न्यायलय के फैसले के बाद अत्याचार निरोधक कानून में हुए बदलावों के विरोध में सरकार के भीतर से भी आवाज उठ रही थी। सराकर की सहयोगी एलजीपी के राम विलास पासवान ने भी 9 अगस्त को कानून में हुए बदलाव के विरोध में दलित संगठनों के बुलाए बंद का सहयोग कर यह साफ़ कर दिया था कि मामला कितना गंभीर हैं और सरकार को अगर सुचारु रूप से चलाना हैं तो इस मुद्दे को जल्द से जल्द निपटाना होगा।
अब जब सरकार ने संसद में अध्यादेश लाकर इस मामले का निपटारा करने की पहल की हैं तो समाज के एक बड़े वर्ग को राहत की सांस मिलेगी की सरकार और कठोर कानून उनकी रक्षा के लिए मौजूद हैं।
■संपादकीय
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