जे न मित्र दुख होहिं दुखारी।तिन्हहि विलोकत पातक भारी।
निज दुख गिरि सम रज करि जाना।मित्रक दुख रज मेरू समाना।
अंतरराष्ट्रीय मित्रता दिवस या फ्रैंडशिप डे हर वर्ष अगस्त के पहले रविवार को मनाया जाता है। सर्वप्रथम मित्रता दिवस 1958 को आयोजित किया गया था। अंतरराष्ट्रीय मित्रता दिवस या फ्रैंडशिप डे का विचार पहली बार 20 जुलाई 1958 को डॉ रामन आर्टिमियो ब्रैको द्वारा प्रस्तावित किया गया था। दोस्तों की इस बैठक में से, वर्ल्ड मैत्री क्रूसेड का जन्म हुआ था। द वर्ल्ड मैत्री क्रूसेड एक ऐसी नींव है जो जाति, रंग या धर्म के बावजूद सभी मनुष्यों के बीच दोस्ती और फैलोशिप को बढ़ावा देती है।
भारतीय परंपरा में हमेशा से ही मित्रता का महत्व रहा है। हमारे जीवन में माता-पिता और गुरू के बाद मित्र को स्थान दिया गया है।
कृष्ण सुदामा की मित्रता
जब भी मित्रता की बात होती है तो लोग द्वापर युग वाली कृष्ण-सुदामा की मित्रता की मीसाल देना नहीं भूलते।भगवान कृष्ण के सहपाठी रहे सुदामा एक बहुत ही गरीब ब्राह्मण परिवा से थे। एक बार सुदामा की पत्नी ने कहा- आप बताते रहते हैं कि द्वारका के राजा आपके मित्र हैं तो क्यों नहीं एक बार उनके पास चले जाते? सुदामा कृष्ण से मिलने द्वारका जाते हैं और उनकी कृपा से पुनः सुख सम्पदा से परिपूर्ण होते हैं।
कृष्ण अर्जुन की मित्रता
महाभारत के युद्ध में जब अर्जुन अपना गाण्डीव रख देते हैं तो श्री कृष्ण सखा भाव से अपने विराट रूप का दर्शन दे उन्हें गीता का सार सुनाते हैं। मित्रता वश ही कृष्ण अर्जुन के सारथि बनने को भी तैयार हो जाते हैं। ये मित्रता और वचन का भार उठाये कृष्ण सम्पूर्ण महाभारत युद्ध में एक बार भी अस्त्र नहीं उठाते पर अपने मित्र की हर रूप में सहायता करते हैं।
बाद में अपने मित्र की इसी सहायता के कारण उनकी गांधारी के श्राप से मृत्यु होती हैं।
कर्ण दुर्योधन की मित्रता
ऐसा नहीं हैं कि मित्रता केवल गुणी लोगों से हो पर कभी-कभी दुर्गुणी लोगों से भी परिस्थिति वश मित्रता हो जाती हैं। पर मित्रता का भाव इतना परिमार्जित और परिष्कृत हैं कि उसमे सभी के दुर्गुण गौण हो जाते हैं। ऐसी ही एक मित्रता का उदहारण हैं कर्ण और दुर्योधन की मित्रता। एक और जहाँ महाबलिदानी कर्ण हैं तो दूसरी और अपने भाइयों का हक़ न देने वाला दुर्योधन। यह मित्रता ही हैं कि महाभारत के युद्ध में अपनी पराजय जान कर भी कर्ण कौरवों की तरफ से अपने मित्रता धर्म का निर्वाह करने के लिए पाण्डवों से लड़ते हैं।
■सिद्धार्थ सिंह
निज दुख गिरि सम रज करि जाना।मित्रक दुख रज मेरू समाना।
अंतरराष्ट्रीय मित्रता दिवस या फ्रैंडशिप डे हर वर्ष अगस्त के पहले रविवार को मनाया जाता है। सर्वप्रथम मित्रता दिवस 1958 को आयोजित किया गया था। अंतरराष्ट्रीय मित्रता दिवस या फ्रैंडशिप डे का विचार पहली बार 20 जुलाई 1958 को डॉ रामन आर्टिमियो ब्रैको द्वारा प्रस्तावित किया गया था। दोस्तों की इस बैठक में से, वर्ल्ड मैत्री क्रूसेड का जन्म हुआ था। द वर्ल्ड मैत्री क्रूसेड एक ऐसी नींव है जो जाति, रंग या धर्म के बावजूद सभी मनुष्यों के बीच दोस्ती और फैलोशिप को बढ़ावा देती है।
भारतीय परंपरा में हमेशा से ही मित्रता का महत्व रहा है। हमारे जीवन में माता-पिता और गुरू के बाद मित्र को स्थान दिया गया है।
कृष्ण सुदामा की मित्रता
जब भी मित्रता की बात होती है तो लोग द्वापर युग वाली कृष्ण-सुदामा की मित्रता की मीसाल देना नहीं भूलते।भगवान कृष्ण के सहपाठी रहे सुदामा एक बहुत ही गरीब ब्राह्मण परिवा से थे। एक बार सुदामा की पत्नी ने कहा- आप बताते रहते हैं कि द्वारका के राजा आपके मित्र हैं तो क्यों नहीं एक बार उनके पास चले जाते? सुदामा कृष्ण से मिलने द्वारका जाते हैं और उनकी कृपा से पुनः सुख सम्पदा से परिपूर्ण होते हैं।
कृष्ण अर्जुन की मित्रता
महाभारत के युद्ध में जब अर्जुन अपना गाण्डीव रख देते हैं तो श्री कृष्ण सखा भाव से अपने विराट रूप का दर्शन दे उन्हें गीता का सार सुनाते हैं। मित्रता वश ही कृष्ण अर्जुन के सारथि बनने को भी तैयार हो जाते हैं। ये मित्रता और वचन का भार उठाये कृष्ण सम्पूर्ण महाभारत युद्ध में एक बार भी अस्त्र नहीं उठाते पर अपने मित्र की हर रूप में सहायता करते हैं।
बाद में अपने मित्र की इसी सहायता के कारण उनकी गांधारी के श्राप से मृत्यु होती हैं।
कर्ण दुर्योधन की मित्रता
ऐसा नहीं हैं कि मित्रता केवल गुणी लोगों से हो पर कभी-कभी दुर्गुणी लोगों से भी परिस्थिति वश मित्रता हो जाती हैं। पर मित्रता का भाव इतना परिमार्जित और परिष्कृत हैं कि उसमे सभी के दुर्गुण गौण हो जाते हैं। ऐसी ही एक मित्रता का उदहारण हैं कर्ण और दुर्योधन की मित्रता। एक और जहाँ महाबलिदानी कर्ण हैं तो दूसरी और अपने भाइयों का हक़ न देने वाला दुर्योधन। यह मित्रता ही हैं कि महाभारत के युद्ध में अपनी पराजय जान कर भी कर्ण कौरवों की तरफ से अपने मित्रता धर्म का निर्वाह करने के लिए पाण्डवों से लड़ते हैं।
■सिद्धार्थ सिंह
No comments:
Post a Comment