सावन और काशी का अदभुत रिश्ता है। शिव की नगरी में सावन का धार्मिक, आध्यात्मिक महत्व तो है ही, बनारस और आसपास के आंचलिक कस्बों में सावन के झूलों के बीच कजरी गायन की एक सांस्कृतिक छटा भी है। जी हां, कजरी वही लोकगायन है, जो मीरजापुर से निकल समूचे पूर्वांचल को सावन का उत्सवी माहौल देती है। अब तो इसका विस्तार यूपी से निकल बिहार/झारखंड और देश के अन्य हिस्सों तक फैल गया है, जहां भी पूर्वांचल की संस्कृति घुली-मिली है।
चलिए, लौटते हैं बनारस के सावन और यहीँ की कजरी की ओर। सावन का महीना आते ही हर तरफ रिमझिम फुहारों और हरियाली के बीच झूले पड़ने लगते हैं और इस खास मौके को सांस्कृतिक रूप से उत्कृष्ट बनाता है श्रावणी लोकगीतों का सिरमौर कजरी। तीज, नागपंचमी, रक्षाबंधन के त्यौहार में महिलाएं खासकर लड़कियों की जुबान खुद-ब-खुद कजरी की गुनगुनाहट में रमी नजर आने लगती है। अर्ध-शास्त्रीय गायन की विधा के रूप में शुरू हुई सावन की कजरी का परिष्करण बनारस घराने की खास दखल के बाद अब वैश्विक महत्व पा चुका है। कारे बादरों के शोर, झूमते पवन की पुरवाई कजरी की उपज है। हर लोक में कजरी रची और गाई गई। विरह, प्रेम, मिलन और मनुहार को सुरों के जरिए व्यक्त करने के लिए कजरी कब से कंठ में समाई, यह बताना तो थोड़ा कठिन है, लेकिन इसके प्रसंग महाभारत काल से ही मिलते हैं।
चरक संहिता में है वर्णन
चरक संहिता में तो यौवन की संरक्षा व सुरक्षा हेतु बसन्त के बाद सावन महीने को ही सर्वश्रेष्ठ बताया गया है। सावन में नई ब्याही बेटियां अपने पीहर वापस आती हैं और बगीचों में भाभी और बचपन की सहेलियों संग कजरी गाते हुए झूला झूलती हैं। चंदौली जिले से लगभग 25 किमी दूर भिटारी गाँव की जावित्री देवी 55 बताती हैं, कजरी गाँवों में सावन के समय गाया जाता है। अब तो कम हो गया है लेकिन पहले गाँवों में सावन के आते ही बड़े बड़े झूले पड़ जाते थे, औरतें रात के समय इकट्ठा होती थीं कजरी गीत गाती थीं और झूले झूलती थीं।
पहले के समय में ये सब ही मनोरंजन के साधन थे। कजरी के मूलतः तीन रूप हैं- बनारसी, मिर्जापुरी और गोरखपुरी कजरी। बनारसी कजरी अपने अक्खड़पन और बिन्दास बोलों की वजह से अलग पहचानी जाती है। इसके बोलों में अइले, गइले जैसे शब्दों का बखूबी उपयोग होता है, इसकी सबसे बड़ी पहचान ‘न’ की टेक होती है।
भारतेन्दु हरिश्चंद्र ने कजरी की रचना संस्कृत में भी की
भारतेन्दु हरिश्चंद्र ने ब्रज और भोजपुरी के अलावा संस्कृत में भी कजरी रचना की है। लोक संगीत का क्षेत्र बहुत व्यापक होता है। साहित्यकारों द्वारा अपना लिये जाने के कारण कजरी गायन का क्षेत्र भी अत्यन्त व्यापक हो गया। इसी प्रकार उपशास्त्रीय गायक-गायिकाओं ने भी कजरी को अपनाया और इस शैली को रागों का बाना पहना कर क्षेत्रीयता की सीमा से बाहर निकाल कर राष्ट्रीयता का दर्ज़ा प्रदान किया। वहीं 'भारतरत्न' सम्मान से अलंकृत उस्ताद बिस्मिल्ला ख़ांन की शहनाई पर तो कजरी और भी मीठी हो जाती थी।
परम्परागत विषय
'कजरी' के विषय परम्परागत भी होते हैं और अपने समकालीन लोक जीवन का दर्शन कराने वाले भी। अधिकतर कजरियों में श्रृंगार रस की प्रधानता होती है। कुछ कजरी परम्परागत रूप से शक्ति स्वरूपा माँ विंध्यवासिनी के प्रति समर्पित भाव से गायी जाती हैं। भाई-बहन के प्रेम विषयक कजरी भी सावन में बेहद प्रचलित है। परन्तु अधिकतर कजरी ननद-भाभी के सम्बन्धों पर केन्द्रित होती हैं। ननद-भाभी के बीच का सम्बन्ध कभी कटुतापूर्ण होता है, तो कभी अत्यन्त मधुर भी होता है। गोरिया कहे बलम हमरा के उंची अंटरिया चाही ना...। चढ़त आषाढ़ खेती बरिया चाही/हर हेंगा बरिअरिया चाही/ सावन ना रे भैया सावन ना हो, सावन झूले बदे के झूला कदम की डरिया चाही ना...।
इसी तरह सावन की फुहारों में भींगते हुए गाई जाने वाली कजरी की बानगी देखिए- हरे रामा सावन की आइल बहार बदरिया घिर घिर आइल ना...। आइ गइले सावन के महिनवा हो पियवा मोर पलटनिया...।
इस तरह रिमझिम फुहारों के बीच सखियों, भाभी-ननद की हंसी-ठिठोली में डूबी कजरी लोक संस्कृति को सुदृढ़ भी करती है और रोचक भी।
■ काशी पत्रिका
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