मनुष्य अकसर किसी न किसी प्रकार की चिन्ता में पड़ा रहता है। यह सोचकर कि चिन्ता नहीं करेंगे तो जीवन में गति कैसे होगी? यह अवधारणा भ्रामक एवं मूर्खतापूर्ण है। चिन्ता से गति नहीं, बाल्कि जीवन की गति में एक अवरोध एवं रुकावट पैदा होती है...
जब भी हम चिंता में डूबते हैं, तो हमारा ध्यान एक ही जगह जो कि चिंता से सम्बन्धीत वासना है, उसी पर अटक जाता है। जागरूकता एवं होश का स्तर गिरने लगता है। हमारी ऊर्जा सिकुड़ने लगती है। पाचन तन्त्र अस्त- व्यस्त हो जाता है। यह दीर्घकालीन हुआ तो आत्मघाती भी सिद्ध होता है। चिन्ता आत्मघाती भावदशा है। इसके प्रति होश से भरने की आवश्यकता है। लेकिन कुछ ऐसी मूर्खतापूर्ण मान्यताए हैं, जो कि चिन्ता के पक्ष में होती है। जैसे कि चिंता करना स्वाभाविक है,चिन्ता नहीं करेंगे तो प्रयास कैसे करेंगे। बचपन से ही चिन्ता के बारे में हम ऐसी बाते सुनते है,नजैसे बच्चों से हम कहते है कि तुम्हें तो कोई चिंता ही नहीं है। तुम्हें पढ़ाई की भी चिन्ता नहीँ है। जब तुम्हें चिन्ता ही नहीँ है, तो जिन्दगी में क्या कर पाओगे। इस प्रकार की बातें हम रोज करते हैं एवं सुनते हैं, जो कि सामूहिक रुप से ऐसी मान्यता एवं धारणा पैदा करता है कि चिन्ता करना जरूरी है और प्रगति के लिए आवश्यक है।
कैसी मूर्खतापूर्ण एवं विरोधाभासी बातें समाज में प्रचलित हैं कि सारा व्यक्तित्व ही उलझ जाता है। जैसे एक तरफ हम सिखाते है कि चिन्ता जरूरी है और जब कोई चिन्ता में होता है, तो हम समझाते है कि चिन्ता करोगे तो जीवन में क्या कर पाओगे। दोनों ही बातें विरोधाभासी हैं, इसलिए हमें सिखावन से नहीं, बल्कि जागरूकता से, होश से, चिन्ता की भावदशा का साक्षात्कार करना होगा। नहीं तो हम क्रमशः आत्मघात की ओर बढ़ते जायेंगे।
■ ओशो
जब भी हम चिंता में डूबते हैं, तो हमारा ध्यान एक ही जगह जो कि चिंता से सम्बन्धीत वासना है, उसी पर अटक जाता है। जागरूकता एवं होश का स्तर गिरने लगता है। हमारी ऊर्जा सिकुड़ने लगती है। पाचन तन्त्र अस्त- व्यस्त हो जाता है। यह दीर्घकालीन हुआ तो आत्मघाती भी सिद्ध होता है। चिन्ता आत्मघाती भावदशा है। इसके प्रति होश से भरने की आवश्यकता है। लेकिन कुछ ऐसी मूर्खतापूर्ण मान्यताए हैं, जो कि चिन्ता के पक्ष में होती है। जैसे कि चिंता करना स्वाभाविक है,चिन्ता नहीं करेंगे तो प्रयास कैसे करेंगे। बचपन से ही चिन्ता के बारे में हम ऐसी बाते सुनते है,नजैसे बच्चों से हम कहते है कि तुम्हें तो कोई चिंता ही नहीं है। तुम्हें पढ़ाई की भी चिन्ता नहीँ है। जब तुम्हें चिन्ता ही नहीँ है, तो जिन्दगी में क्या कर पाओगे। इस प्रकार की बातें हम रोज करते हैं एवं सुनते हैं, जो कि सामूहिक रुप से ऐसी मान्यता एवं धारणा पैदा करता है कि चिन्ता करना जरूरी है और प्रगति के लिए आवश्यक है।
कैसी मूर्खतापूर्ण एवं विरोधाभासी बातें समाज में प्रचलित हैं कि सारा व्यक्तित्व ही उलझ जाता है। जैसे एक तरफ हम सिखाते है कि चिन्ता जरूरी है और जब कोई चिन्ता में होता है, तो हम समझाते है कि चिन्ता करोगे तो जीवन में क्या कर पाओगे। दोनों ही बातें विरोधाभासी हैं, इसलिए हमें सिखावन से नहीं, बल्कि जागरूकता से, होश से, चिन्ता की भावदशा का साक्षात्कार करना होगा। नहीं तो हम क्रमशः आत्मघात की ओर बढ़ते जायेंगे।
■ ओशो
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