विद्यापति भारतीय साहित्य की 'श्रृंगार-परम्परा' के साथ-साथ 'भक्ति-परम्परा' के भी प्रमुख स्तंभों में से एक और मैथिली के सर्वोपरि कवि के रूप में जाने जाते हैं। इनके काव्यों में मध्यकालीन मैथिली भाषा के स्वरूप का दर्शन किया जा सकता है। इन्हें वैष्णव, शैव और शाक्त भक्ति के सेतु के रूप में भी स्वीकार किया गया है। मिथिला के लोगों को 'देसिल बयना सब जन मिट्ठा' का सूत्र दे कर इन्होंने उत्तरी-बिहार में लोकभाषा की जनचेतना को जीवित करने का महान् प्रयास किया है। विद्यापति ने संस्कृत, अवहट्ठ, एवं मैथिली में कविता रची। कीर्तिलता और कीर्तिपताका नामक रचनाएं अवहट्ठ में लिखी हैं। पदावली उनकी हिन्दी-रचना है और वही उनकी प्रसि़द्धि का कारण हैं। पदावली में कृष्ण-राधा विषयक श्रृंगार के पद हैं। इनके आधार पर इन्हें हिन्दी में राधा-कृष्ण-विषयक श्रृंगारी काव्य के जन्म दाता के रूप में जाना जाता है। पदावली और कीर्तिलता इनकी अमर रचनाएँ हैं।
मैथिली साहित्य में मध्यकाल के तोरणद्वार पर जिसका नाम स्वर्णाक्षर में अंकित है, वे हैं चौदहवीं शताब्दी के संघर्षपूर्ण वातावरण में उत्पन्न अपने युग का प्रतिनिधि मैथिली साहित्य-सागर का वाल्मीकि-कवि कोकिल विद्यापति ठाकुर। बहुमुखी प्रतिमा-सम्पन्न इस महाकवि के व्यक्तित्व में एक साथ चिन्तक, शास्रकार तथा साहित्य रसिक का अद्भुत समन्वय था। संस्कृत में रचित इनकी पुरुष परीक्षा, भू-परिक्रमा, लिखनावली, शैवसर्वश्वसार, शैवसर्वश्वसार प्रमाणभूत पुराण-संग्रह, गंगावाक्यावली, विभागसार, दानवाक्यावली, दुर्गाभक्तितरंगिणी, गयापतालक एवं वर्षकृत्य आदि ग्रन्थ जहाँ एक ओर इनके गहन पाण्डित्य के साथ इनके युगद्रष्टा एवं युगस्रष्टा स्वरुप का साक्षी हैं, तो दूसरी तरफ कीर्तिलता, एवं कीर्तिपताका महाकवि के अवह भाषा पर सम्यक ज्ञान के सूचक होने के साथ-साथ ऐतिहासिक साहित्यिक एवं भाषा सम्बन्धी महत्व रखने वाला आधुनिक भारतीय आर्य भाषा का अनुपम ग्रन्थ है। परन्तु विद्यापति के अक्षम कीर्ति का आधार, जैसा कि पहले कहा जा चुका है, है मैथिली पदावली जिसमें राधा एवं कृष्ण का प्रेम प्रसंग सर्वप्रथम उत्तरभारत में गेय पद के रुप में प्रकाशित है। इनकी पदावली मिथिला के कवियों का आदर्श तो है ही, नेपाल का शासक, सामंत, कवि एवं नाटककार भी आदर्श बन उनसे मैथिली में रचना करवाने लगे बाद में बंगाल, असम तथा उड़ीसा के वैष्णभक्तों में भी नवीन प्रेरणा एवं नव भावधारा अपने मन में संचालित कर विद्यापति के अंदाज में ही पदावलियों का रचना करते रहे और विद्यापति के पदावलियों को मौखिक परम्परा से एक से दूसरे लोगों में प्रवाहित करते रहे। मिथिलांचल के लोकव्यवहार में प्रयोग किये जाने वाले गीतों में आज भी विद्यापति की शृंगार और भक्ति-रस में पगी रचनाएँ जीवित हैं।
पारिवारिक जीवन
मिथिला के उतेढ़पोथी से ज्ञात होता है कि इनके दो विवाह हुए थे। प्रथम पत्नी से नरपति और हरपति नामक दो पुत्र हुए थे और दूसरी पत्नी से एक पुत्र वाचस्पति ठाकुर तथा एक पुत्री का जन्म हुआ था। संभवत: महाकवि की यही पुत्री 'दुल्लहि' नाम की थी, जिसे मृत्युकाल में रचित एक गीत में महाकवि अमर कर गये हैं। कालान्तर में विद्यापति के वंशज किसी कारणवश विसपी को त्यागकर सदा के लिए सौराठ गाँव (मधुबनी ज़िला में स्थित समागाछी के लिए प्रसिद्ध गाँव्) आकर बस गए। वर्तमान समय में महाकवि के सभी वंशज इसी गाँव में निवास करते हैं। जनश्रुतियाँ बताती है कि आधुनिक बेगूसराय ज़िला के मउबाजिदपुर (विद्यापतिनगर) के पास गंगातट पर महाकवि ने सन 1448 में प्राण त्याग किया था।
आजु दोखिअ सखि बड़ अनमन सन.... आजु दोखिअ सखि बड़ अनमन सन, बदन मलिन भेल तारो।मन्द वचन तोहि कओन कहल अछि, से न कहिअ किअ मारो।आजुक रयनि सखि कठि बितल अछि, कान्ह रभस कर मंदा।गुण अवगुण पहु एकओ न बुझलनि, राहु गरासल चंदा।।अधर सुखायल केस असझासल, धामे तिलक बहि गेला।बारि विलासिनि केलि न जानथि, भाल अकण उड़ि गेला।।भनइ विद्यापति सुनु बर यौवति, ताहि कहब किअ बाधे।जे किछु पहुँ देल आंचर बान्हि लेल, सखि सभ कर उपहासे।।
सखि हे, कि पुछसि अनुभव मोए.... सखि हे, कि पुछसि अनुभव मोए।सेह पिरिति अनुराग वखानिअतिल-तिल नूतन होए।जनम अवधि हम रूप निहारल नयन न तिरपित भेल।सेहो मधुर बोल स्रवन्हि सूनलस्रुति पथ परस न गेल।कत मधु-जामिनि रभस गमाओलिन बुझल कइसन केल।लाख लाख जुग हिअ हिअ राखलतइयो हिअ जरनि गेल।कत विदग्ध जन रस अनुमोदएअनुभव काहु न पेख।विद्यापति कह प्राण जुड़ाइतेलाखे मिलल न एक।■
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