वक्त ने बहुत कुछ बदला है, तकनीक के साथ इंसान भी मशीन हो चला है। पहले राजनीति में भी बौद्धिकता की कद्र होती थी, अब बौद्धिकता में भी राजनीति घुल गई है। यही वजह है कि पहले 'मुल्ला की दौड़ मस्जिद तक' कहावत मशहूर थी, राजनीतिक रंग ने इसे भी बदल डाला, अब 'मुल्ला की दौड़ मंदिर तक' हो गई है। यकीन नहीं होता, पर यही सच है।
देश दिन-दूनी रात-चौगुनी रफ्तार से तरक्की कर रहा है, कम से सत्ता पक्ष के नेताओं के भाषण तो यही कहते हैं। इधर, यह अनपढ़ उसी रफ्तार से पिछड़ता
जा रहा है। इसी मनोदशा में दिमागी ताना-बाना बुनते गलियों से भटकते घाट पर जाकर बैठा ही था कि पीछे से चिर-परिचित आवाज आई, "कबले (कब तक) बनारस की धरती पर बोझ बनल रहबा (बने रहोगे)?? पलटा, तो पुराने मित्र थे.. महादेव भइया के संबोधन से बात बढ़ाई, "कउनो कामे नाही हव, का करी" (कोई काम ही नहीं है, क्या करें)। उन्होंने सलाह दी, "दिल्ली चल जा लोटन गुरु के लग्गे (पास), जुगाड़ हो जाई। ओन्हउ (वो भी) खुश हो जइहैं (जाएंगे)"।
बात जंच गई, लोटन गुरु बचपन के मित्र थे, सुना था 5-7 साल में बहुत तरक्की कर गए थे। मित्र से उनका नंबर/पता लिया, उन्होंने तुरंत बात भी करा दी फिर बोले, "आज सनीचर हव, तू मंगर के निकला कांहे कि सोम्मार के बाबा क नगरी नाही छोड़ल जात" (आज शनिवार है, तुम मंगलवार को निकलो क्योंकि सोमवार को काशी नहीं छोड़ते)। मैंने भी अनमने ही सहमति जताई, फिर टिकट की व्यवस्था हुई और 2 दिन बाद ट्रेन पकड़ ली।
मित्रवर ने लोटन गुरु को यात्रा विवरण दे दिया होगा, सो नई दिल्ली रेलवे स्टेशन पर ट्रेन से उतरते ही दो साफ-सुथरे संभ्रांत किंतु रौबदार टाइप लोग आए और नाम/पता से इत्मीनान हो साथ चलने का आग्रह किए। थोड़ी झिझक, थोड़े संशय के बाद मैंने बैग तो उन्हें दिया, लेकिन इतना चैतन्य जैसे बैग में करोड़ों की वसीयत हो। खैर, स्टेशन के बाहर एक बड़ी लग्जरी कार के पास लोटन गुरु फोन पर व्यस्त थे, मेरे आभास से पलटे और झट गले लगाया- "आवा-आवा गुरु.."। मैं भौंचक-निःशब्द कुछ कह न सका, वजह सामने वाले की रईसी हो सकती है। साथ आए बंधुओं ने कार में बैग ऐसे रखा, मानो सचमुच वह करोड़ों का हो। सभी कार में बैठे, दोनों सज्जन में एक ड्राइविंग सीट पर और दूसरे बगल में, जबकि मैं लोटन गुरु के साथ पीछे।
क्षणिक मौन के बाद लोटन गुरु ने माफी के अंदाज में कहा, "मित्र, एक जरूरी फोन आ गया इसलिए इन्हें भेजना पड़ा। वैसे, मुझे थोड़ा वक्त देते तो फ्लाइट का टिकट भेज देता, आराम से आ जाते।" मैं केवल मुस्कुरा भर सका। आगे उनकी आपसी बातचीत में पता चला कि PMO से फोन न आता, तो लोटन गुरु खुद ट्रेन तक आते। इस दौरान वह लगातार उन दोनों से और बीच-बीच में मुझसे मुखातिब हो हमारी मित्रता का बखान करते रहे। करीब आधे घंटे बाद हम घर पहुंचे, घर क्या आलीशान बंगला था। सुरक्षाकर्मी ने गेट खोला, झटपट नौकर दौड़े, उन्हें निर्देश दिया गया कि मेरा सामान मालिक के कमरे में रखा जाए।
भीतर बड़े हॉल में दाखिल होते ही करीब आधा दर्जन लोग शायद लोटन गुरु का ही इंतजार कर रहे थे, हाथ जोड़कर खड़े हो गए। सबके अभिवादन के बाद उन्होंने मुझसे मनुहार किया कि मैं उनके कमरे में जाकर आराम करूं, वो 20 मिनट में सबको निबटाकर आ जाएंगे। मैं भीतर आया, कमरा किसी 5स्टार लग्जरी से कम नहीं था, सेवकों ने बताया बाथरूम में नहाने आदि की व्यवस्था कर दी गई है। करीब 5 मिनट के अल्पविराम के बाद नहाने चला गया, लौटने पर चाय-नाश्ता तैयार रखा था। चाय की तलब लोटन गुरु का इतंजार नहीं करने दी। नाश्ता आधा होते-होते लोटन गुरु आए, व्यक्तिगत कुशलक्षेम के बाद बनारसी मित्रों का हालचाल पूछने लगे। बातों-बातों में उन्होंने मुझे आश्वस्त किया, "कउनो चिंता मत करा, जब हमरे जइसन बज्र दसवीं पास एतना आडंबर फइला सकेला, त तोहरे लग्गे त डिग्रियन क गठरी हव" (जब मुझ जैसा दसवीं पास मूर्ख इतना सब कर सकता है, तो तुम्हारे पास तो तमाम डिग्रियां हैं)। वह आगे बोले, "तू आ गइला, अब देखा हम बदरे में छेद कर देब" (तुम आ गए, अब मैं आसमान छू लूंगा)। मैंने सवालिया नजर से देखा, तो कहे "मित्र यहां सबकुछ आसान है, बस थोड़ा दिखावा और पूरा नकलीपन होना चाहिए। नेताओं को तो बस जनता को बेवकूफ बनाना है, और उसकी रूपरेखा हम जैसे तैयार करते हैं। मंदिर-मस्जिद, धर्म-जाति की पूरी नौटंकी में किसी को किसी का भला नहीं करना, बस मुद्दों को ताड़ना और अपना हित साधना है। यहां ही क्या, कहीं भी इन नेताओं की बिरादरी एक जैसी ही होती है। राजनीति में मुल्ला मंदिर की ओर दौड़ता है, तो पंडित मस्जिद की ओर और रात में दोनों साथ बैठकर कबाब-बिरयानी, फल-जूस, शराब-शबाब का लुत्फ उठाते हैं।"
एक-एक कर छद्म दुनिया के तमाम पर्दे उठ ही रहे थे कि एक सेवक ने खलल डाल दिया, "साहब, विपक्ष के एक नेता, दूसरी पार्टी के मुखिया के साथ आए हैं।" लोटन गुरु ने उसे 'अभी आता हूं' कहा और मुझसे मुखातिब हो बोले "चलो थोड़े मजे ले लो"। फिर, मुझे साथ लेकर हॉल में आए और उन लोगों से ऐसे गले मिले जैसे मेले में बिछड़े भाई हों। सामने वाले ने कसीदे पढ़े, "लोटाशंकर जी, आप न होते तो हमारा अस्तित्व न होता, आपमें जरूर कुछ ईश्वरीय शक्ति है"। गर्व को छिपाते लोटन गुरु बोले, "नहीं बंधु, हम तो आपके सेवक हैं। हां, यह जरूर है कि हमारे पिता भोलेनाथ के भक्त थे और रोजाना सुबह कई लोटा जल से बाबा का अभिषेक किया करते थे। परिजन बताते हैं कि शंकरजी की कृपा से ही हम जन्मे, इसीलिए हमारा नाम लोटाशंकर रखा गया।" ..और लोटन गुरु मुझे देख मुस्कुरा दिए। मैं मन ही मन कुढ़ा कि यह बचपन का 'लोटना' लोटाशंकर कब बन गया। जहां तक याद था, इस काहिल, मक्कार, कामचोर को सब लोटना-लोटना बुलाते थे, क्योंकि घर-बाहर काम करने की बजाय यह इधर-उधर लोटा (सोया) रहता था।
खैर, बात आगे बढ़ी और आगन्तुकों ने लोटन गुरु से कुछ राय-मशविरा किया और खुश हो विदा हुए। कुछ देर बाद खाने की टेबल पर हम आपसी चर्चा में लगे। मैंने पूछा, "नाम कब बदला?" आशय भांप उन्होंने जवाब दिया, "मित्र! काम के साथ ही नाम बदला, और कहानी भी..। दरअसल, यहां कुछ आए या न आए, बातें बनानी आनी चाहिए। यहां सबसे ज्यादा स्कोप बेरोजगारों के लिए है, और कम पढ़ा-लिखा हो तो क्या कहने!! संसद को ही ले लो, यहां कम पढ़े-लिखे ज्यादा ऐश से हैं, कुछ तो मंत्री तक हैं। आंकड़े देखें, तो निरक्षर संसद 1, साक्षर-5, 5वीं पास-6, 8वीं पास-9, 10वीं पास-48 और 12वीं पास-57 सांसद हैं, जबकि 12 ने शैक्षणिक जानकारी नहीं दी है। यह हालत सुधरने के बाद की स्थिति है। देश की राजनीति में पढ़े-लिखे तो ज्यादा आते नहीं, मंत्री से लेकर प्रधानमंत्री तक सभी अपनी मेहनत और लगन का गुणगान करते हैं। जब चाय वाला संघर्ष कर सकता है, तो देश का हर नागरिक संघर्ष कर ऊंची उड़ान भर सकता है।" खाना पूरा हुआ और लोटन गुरु का भाषण भी। मैं अनमना तो था, पर उनके तर्क में दम था।
दोपहर बाद उन्हें किसी खास के यहां जाना था, उन्होंने मुझे भी जबरन तैयार किया और चल पड़े। सत्ता पक्ष से जुड़े एक बड़े व्यक्ति के यहां पहुंचे, जो मुझे देख थोड़ा हिचकिचाए। लोटन गुरु ने संशय दूर किया, "अरे! ये हमारे बचपन के मित्र हैं और आपकी सबसे बड़ी जीत मैंने इन्हीं के दम पर कराई। इन्होंने ही वह सौहार्द वाला जुमला सुझाया था।" फिर, मुझे इशारा किया, जो आपने मस्जिद में ब्राह्मणों से भोजन कराने और मंदिर में मौलाना से सेवा कराने की सलाह दी थी, उसका इस्तेमाल मैंने नेताजी के चुनाव में किया और कायापलट हो गई।" मुझे याद आया वह तो गोदौलिया चौराहे पर यूं ही चर्चा की थी, गुरुआ ने उसे यहां..। मैं जैसे बेहोशी में मुंडी हिला रहा था। खैर, सामने वाला मुझे ऐसे आदर से प्रणाम किया जैसे मेरी ही कृपा से नेता बना हो।
उनकी आपसी बातचीत का मुद्दा भी अगला इलेक्शन था, लोटन गुरु समझा रहे थे कि इस बार विकास से आगे का कोई मुद्दा होना चाहिए, तभी मामला जमेगा। सामने वाला बोला कि स्थिति सकारात्मक नहीं, कुछ अलग करना होगा और जवाब में लोटन गुरु बोले, "धर्म-जाति, मंदिर-मस्जिद का चक्र पूरा तो नहीं हुआ है, लेकिन यह कार्ड मुश्किल है, आप चिंता न करें। हम ऐसे देश में रहते हैं, जहां की जनता कब कौन मुद्दा थमा दे और वह हिट हो जाए, कहा नहीं जा सकता।" इसके बाद चाय आई और उपहास के लिए कुछ विपक्षियों की खिंचाई हुई, फिर हमलोग विदा लिए। लौटते वक्त मैंने चुनावी चर्चा की वजह पूछी, तो लोटन गुरु बोले, "आइडिया तो हजार हैं, लेकिन अभी सब बता देंगे, तो हमें कौन पूछेगा!! हम तो पक्ष-विपक्ष दोनों में उपाय धकेलेंगे, जो हिट हुआ उसकी सत्ता। आइडिया कुछ भी हो, सत्ता के गलियारे में धमक हमारी होनी चाहिए।"
रात में भी कुछ नेता/अधिकारी अलग-अलग उनसे मिलने आए। डिनर के बाद कुछ देर टहले और बनारस व अपने बनारसी मित्रों की चर्चा हुई, फिर लौटकर लोटन गुरु फोन पर व्यस्त हो गए और मैं टीवी पर। सोते वक्त उनका सवाल, "कैसा लगा आज का दिन?" मेरा जवाब, "पंख लगाकर उड़ गया"। वह हंसे, "यही उम्मीद थी, मेरे इतने साल ऐसे ही निकल गए। कहने को कोई काम नहीं और दिन भर व्यस्त"। मैं उन्हें राजनीति पर वापस लाया तो बोले, "मित्र!! यहां सबको सत्ता सुख चाहिए, यही वजह है हम जैसों के पनपने की। कहते हैं बौद्धिक समाज दुनिया को रास्ता दिखाता है, मुल्ला-मौलवी, पंडित-काजी, संत-गुरु-पादरी सभी का काम भाईचारे के साथ सौहार्द को आगे बढ़ाना है। लेकिन मौजूदा दौर में राजनीतिक मुल्ला मंदिर की ओर दौड़ लगा रहा है, तो पंडित मस्जिद की तरफ और उद्देश्य एक-दूसरे का सुख-दुःख बांटना नहीं, बल्कि वोट बटोरना है। अगर ऐसे वोट नहीं मिला, तो इसी सौहार्द को वैमनस्यता में बदल देना है और दुआ में हाथ उठाने का दिखावा करने वाले तलवार उठा लेते हैं। उन्हें हर हाल में सत्ता चाहिए, जनता जाए भाड़ में..."। मेरी आंख लग गई थी, जो उनके खर्राटे से खुली, शायद कुछ मिनट बाद वो भी सो गए हों। करवट बदल मैं भी गहरी नींद हो लिया।
सुबह आंख खुली, 8 बज रहे थे और बाहर लोटन गुरु के किसी से गपियाने की आवाज आ रही थी। फिर, वही चाय-नाश्ता, भोजन-भ्रमण आदि.. रोजाना अलग-अलग राजनीतिक/ सामाजिक चेहरे मिलते, सबसे परिचय होता, लेकिन सबमें खालिस नकलीपन ही नजर आता और पीछे हम व्यक्तित्व की चीर-फाड़ भी करते। धीरे-धीरे 3-4 दिन निकल गए और मैं ऊबने लगा। रात सोते वक्त लोटन गुरु से वापसी की इच्छा जताई, तो नाराज हो बोले "हमने पूरी योजना बना रखी है, कुछ करना नहीं है, बस! हमारे आइडिया को सही रास्ता दिखाना है और भाषण तैयार करना है। बदले में मिलने वाली रकम आधी-आधी, ताकि कोई किसी पर बोझ न हो।" मेरी अनिच्छा पर उन्होंने तमाम प्रलोभन दिए, दोस्ती तक की दुहाई दी और अंततः थक-हार कर मायूसी में बोले, "हम्मे इहे डर रहल, तू न सुधरबा, रुक जइता त हमरो भला हो जात (मुझे यही डर था, तुम नहीं बदलोगे, रुक जाते तो मेरा भी भला हो जाता)। खैर, रमता जोगी, बहता पानी.. मैं आपकी आत्मा मारकर आपको नहीं रोकूंगा मित्र!"
अगले 2-3 दिन दिल्ली घुमाने के बाद शाही अंदाज में मुझे विदा किया गया। मित्रवत कुछ खरीदारी कराई गई। विदा होते समय कुछ रुपये पर्स में डाले गए, टोकने पर लोटन गुरु ने कहा, "यह आपकी ही कमाई है, बीते एक हफ्ते आपने जाने-अनजाने तमाम मंत्र दिए हैं, जिनका इस्तेमाल आने वाले समय में होगा और मैं इससे हजार-लाख गुना कमाऊंगा। उस हिसाब से यह कुछ भी नहीं।" इसके बाद मुझे खुद एयरपोर्ट तक छोड़ने लोटन गुरु आए और नम आंखों से विदाई थी। तमाम नकली चेहरे ओढ़े लोटन गुरु का बचपन वाला मित्रवत रूप विदा होते वक्त दिखा, जो भावविह्वल कर गया। उनकी आंखें अभी भी रोक रहीं थीं, विचलित हो मैं आगे बढ़ गया। मेरी पहली विमान यात्रा थी और संभवतः आखिरी भी, क्योंकि फिर वही बनारस की गलियां, घाट, सीढ़ियां, चायबाजी मेरी दिनचर्या होने वाली थी। विमान ने उड़ान भरी और मन दिल्ली से बनारस हो लिया, लेकिन लोटन गुरु के शब्दों का जाल जेहन में भूचाल मचाए हुए था, राजनीति किसी की सगी नहीं होती, यहां कहावत बदल गई है, "मुल्ला की दौड़ मंदिर तक"..।
■ कृष्णस्वरूप
(यह लेख काल्पनिक है, इसका किसी व्यक्ति/स्थान/चरित्र से कोई सरोकार नहीं है। इसमें उद्धृत व्यक्ति अथवा स्थान का किसी से टकराव महज संयोग होगा).
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