हफ्तेभर की खबरों का लेखाजोखा।
आम जन के चश्मे से देखें तो, केंद्र सरकार के साथ ही विपक्ष भी अब पूरी तरह चुनावी मूड में आ गया है। सड़क से लेकर सदन तक इसकी गूंज इस सप्ताह सुनाई पड़ीं। राफेल को लेकर सरकार सवालों के घेरे में है, तो दलितों के लिए सभी दलों का प्रेम उबाल पर है। इन सबके बीच बच्चियों से शोषण की खबर भी चुनावी आरोप-प्रत्यारोप में घुटकर रह गई।देश में आस्था के नाम पर कांवड़ियों द्वारा की गई हिंसा ने सुप्रीम कोर्ट के माथे पर चिंता की लकीरें खींची, तो केंद्र सरकार ने राजीव गांधी के हत्यारों को माफ करने से इनकार कर दिया। इस हफ्ते करुणानिधि के साथ ही एक राजनीतिक युग का अंत हुआ।
रफेल का “खेल”
राफेल सौदा धीरे-धीरे मोदी सरकार के गले की फांस बनता जा रहा है। मानसून सत्र का आखिरी दिन भी इसकी भेंट चढ़ गया। इतना ही नहीं अब अपने भी राफेल सौदे को लेकर सवाल खड़ा करने लगे हैं। खबरों के मुताबिक यूपीए के समय वही विमान 700 करोड़ में आ रहा था, अब एक विमान के 1600-1700 करोड़ दिए जा रहे हैं। सौदे में प्रधानमंत्री की सीधी दखल, सरकार का बदलता बयान...आदि आदि इशारा करता है कि कुछ तो गड़बड़ है।
शुक्रवार को इस मुद्दे पर विपक्ष ने एकजुट होकर प्रदर्शन किया, वही भाजपा के वरिष्ठ नेता यशवंत सिन्हा, अरुण शौरी और सुप्रीम कोर्ट अधिवक्ता प्रशांत भूषण ने बुधवार को कुछ दस्तावेज जारी किए और कहा कि इस सौदे का उद्देश्य रिलायंस को फायदा पहुंचाना था। साथ ही साल 2015 में प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी द्वारा इस सौदे में किए हुए बदलावों के लिए ढेरों सरकारी नियमों को ताक पर भी रखा गया। इन तीनों ने सौदे से जुड़ा एक पूरा दस्तावेज मीडिया के सामने रखा, जिसमें 2007 से इस सौदे के लिए शुरू हुई प्रक्रिया से लेकर अब तक हुए फैसलों के बारे में विस्तार से बताया गया है। विपक्ष भी सरकार की इस सौदे को लेकर बरती जा रही गैर-पारदर्शिता पर बार-बार सवाल उठा रहा है। भाजपा अध्यक्ष अमित शाह ने पूर्व केंद्रीय मंत्री अरुण शौरी, यशवंत सिन्हा और प्रशांत भूषण द्वारा राफेल सौदे को लेकर लगाए गए भ्रष्टाचार के आरोप को सिरे से खारिज करते हुए कहा कि रक्षामंत्री निर्मला सीतारमण के बयान पर विश्वास किया जाना चाहिए, न कि उन लोगों पर जिन्हें काम नहीं मिला। ज्ञात हो कि रक्षामंत्री निर्मला सीतारमण ने कहा कि मोदी सरकार बातचीत के बाद राफेल लड़ाकू विमान का जो आधार मूल्य तय किया, वो यूपीए द्वारा तय की गई कीमत से कम है।
राफेल पर सरकार की बातें निराली हैं। जब यह मामला राहुल गांधी ने उठाया, तो आनन-फानन में फ्रांस सरकार ने बयान जारी कर कहा कि 2008 के सिक्यॉरिटी अग्रीमेंट के तहत दोनों देश गुप्त सूचना को सार्वजनिक नहीं कर सकते हैं। वहीँ, रक्षा मंत्री निर्मला सीतारमण ने कहा कि देश के सामने सब रख देंगे, मगर बाद में मुकर गईं। कहने लगीं कि फ्रांस से गुप्तता का करार हुआ है, जबकि 13 अप्रैल 2015 को दूरदर्शन को इंटरव्यू देते हुए रक्षा मंत्री मनोहर पर्रिकर बता चुके थे कि 126 एयरक्राफ्ट की कीमत 90,000 करोड़ होगी!
अब तक छपी खबरों के मुताबिक राफेल डील
अप्रैल 2011: IAF ने 126 लड़ाकू विमानों के लिए डसॉल्ट राफेल और यूरोफाइटर टाइफून को चुना।
जनवरी 2012: राफेल की बिड सस्ती पाई गई, लेकिन डील में सरकार और डसॉल्ट के बीच मतभेद थे।
5 जुलाई 2014: यूरोफाइटर ने 20 प्रतिशत डिस्काउंट का ऑफर दिया, एनडीए ने विचार नहीं किया।
10 अप्रैल 2015: पीएम मोदी पैरिस गए, नई डील के तहत 36 राफेल खरीदने की घोषणा की।
24 जून 2015: डिफेंस मीनिस्ट्री ने यूपीए की पहले वाली राफेल डील को विड्रा किया।
23 सितंबर 2016: राफेल के लिए नई डील पर हस्ताक्षर, 7.8 अरब यूरो में 36 जेट खरीदे जाएंगे।
एससी-एसटी एक्ट: वोट की खातिर, बदलता पैतरा
देश में वर्तमान में हो रही सियासी घटनाएं लोकसभा 2019 को लक्ष्य में रख कर उसी के इर्दगिर्द घूम रही हैं। सरकार, विपक्ष सब जनता को भरमाने का एक ऐसा ब्रह्माशस्त्र ढूंढ रहे हैं, जिससे केंद्र की गद्दी पक्की हो जाए। एससी-एसटी एक्ट भी ऐसा ही मामला है, जिसे लेकर अचानक सभी राजनीतिक दल चिंतित हो गए हैं और दलित वोट की जुगाड़ में सब उनके हितैषी हो गए हैं। हंगामे के केंद्र में अन्य मुद्दों के साथ ही बीते 20 मार्च को दिया गया सुप्रीम कोर्ट का दिशा-निर्देश है, जिसमें एससी-एसटी (अनुसूचित जाति-जनजाति अत्याचार निरोधक) कानून, 1990 के कई मामलों में दुरुपयोग की बात उठाते हुए कोर्ट ने कहा कि सीधे गिरफ्तारी न कर मामले की प्रारंभिक जांच हो, सक्षम अधिकारी से अनुमति ली जाये और जमानत देने पर भी विचार किया जाये। इन निर्देशों को एससी-एसटी एक्ट को ‘नरम’ बनाना माना गया और देशभर में विभिन्न दलित संगठन सड़कों पर उतर आये। मोदी सरकार का शुरुआती रुख था कि शीर्ष अदालत ने कानून को बदला नहीं है, बल्कि उसका दुरुपयोग न होने देने के लिए कुछ व्यवस्थाएं दी हैं। लेकिन अब चुनावी समीकरण बदल गए हैं। ऐसे में, सवर्ण जनाधार वाली भाजपा सरकार भी दलितों को लेकर सतर्क हो गई। यहां मामला एनडीए के सहयोगियों को खुश रखने का भी है, इसलिए भाजपा ने फौरन पैंतरा बदला और सुप्रीम कोर्ट में पुनर्विचार याचिका दाखिल की गई। कोर्ट का रुख पूर्ववत रहा, तो संसद के चालू सत्र में ही नया विधेयक लाकर एससी-एसटी एक्ट को फिर से सख्त बनाने की रणनीति बनी। फिलहाल नया विधेयक लोकसभा से पारित हो गया है. सरकार यह प्रचारित करने में कोई कसर नहीं छोड़ रही कि एससी-एसटी एक्ट को पहले से अधिक सख्त किया जा रहा है। उधर, कांग्रेस समेत विपक्ष भाजपा को दलितों के बहाने घेरने में जुट गए। समझने की कोशिश करें तो, दलितों की सबसे बड़ी पैरोकार मायावती ने मई और अक्तूबर 2007 में दो अलग-आलग आदेशों से उत्तर प्रदेश में इस कानून को इतना नख-दंत विहीन कर दिया था, जितना वह सुप्रीम कोर्ट के निर्देशों से भी नहीं हुआ। उन आदेशों का सार यह था कि हत्या और बलात्कार को छोड़कर दलित उत्पीड़न के अन्य मामले एससी-एसटी एक्ट के तहत दर्ज न किये जाएं और यदि कोई दलित किसी पर इस कानून का दुरुपयोग करे, तो उस पर आईपीसी की धाराओं में मुकदमा दर्ज हो। यानी दलितों नहीं वोटो की चिंता में मौका परस्त राजनीति चलती रहती है। यही वजह है कि वक्त की नजाकत को देखते हुए भाजपा सबसे ज्यादा दलित हितैषी दिखना चाह रही है, क्योंकि यूपी में सपा-बसपा एक हुई, तो दलित वोटो की जरूरत चुनावी नैया पार कराने के लिए पड़ेगी।
राज्यसभा में हार के मायने
मोदी-अमित शाह की मजबूत जोड़ी के सामने विपक्षी एकता का ताना-बाना इस बार राज्यसभा में बिखर गया। जबकि, ठीक एक साल पहले नौ अगस्त के दिन ही अहमद पटेल ने विपरीत परिस्थितियों में भाजपा के अध्यक्ष अमित शाह को उनके घरेलू मैदान में मात देते हुए राज्यसभा की सीट जीत ली थी। फिर ऐसा क्या हुआ कि कांग्रेस अध्यक्ष राहुल गांधी को उपसभापति के चुनाव में हार का सामना करना पड़ा। विशेषज्ञों की मानें, तो विपक्ष आंकड़ों में बेहतर स्थिति में थी, लेकिन राहुल गांधी की अनुभवहीनता का खामियाजा उसे भुगतना पड़ा। राहुल गांधी के पास राज्यसभा में संभावित साझेदारों को एकजुट करने के लिए कोई रणनीति नहीं बनाई और न ही उन्होंने इसे लेकर किसी से संपर्क साधा। उधर, सत्तारूढ़ गठबंधन ने न सिर्फ अन्नाद्रमुक को चाकचौबंद किया, बल्कि ढुलमुल रहने वाले बीजू जनता दल और तेलंगाना राष्ट्रीय समिति को भी अपने पक्ष में मतदान के लिए तैयार कर लिया। इतना ही नहीं नीतीश कुमार के करीबी माने जाने वाले हरिवंश प्रसाद को खड़ा कर उससे रिश्ते संवारे, तो दूसरी तरफ नाराज चल रहे साथी शिवसेना को भी पक्ष में खड़ा कर लिया। राहुल गांधी की चूक से टीडीपी, वायएसआर कांग्रेस और आम आदमी पार्टी के सांसद वोट देने के दौरान अनुपस्थित रहे।
लोकसभा में ‛अविश्वास प्रस्ताव’ पर हार के बाद राज्यसभा की पटखनी 2019 में कांग्रेस के लिए अच्छा संकेत नहीं दे रही, क्योंकि भाजपा के पास बहुमत नहीं भी हुआ, तो वह कुशल प्रबंधन से आंकड़ा जुटा सकती है। हालांकि, भाजपा के विरुद्ध विपक्ष चुनाव बाद अपने-अपने स्वार्थ बस खुद ही एक हो जाए संभव है। किंतु, फिर बात जब स्वार्थ की ही है, तो कई दल ऐसे हैं, जो फायदा देख भाजपा से गठबंधन करने में भी गुरेज नहीं करेंगे।
आस्था के नाम पर उद्दंडता!
आस्था के नाम पर देश में बढ़ रहे उन्माद और उद्दंडता का एक और उदाहरण इस बार कांवड़ यात्रा के दौरान देखने को मिला। दिल्ली और उत्तर भारत में कांवड़ियों द्वारा की गई तोड़फोड़ और हिंसक घटनाओं पर संज्ञान लेते हुए शुक्रवार को सुप्रीम कोर्ट ने कहा कि कानून को अपने हाथ में लेने वाले कांवड़ियों के खिलाफ पुलिस को सख्त कार्रवाई करनी चाहिए। इसके साथ सुप्रीम कोर्ट ने यह भी कहा कि वह भीड़ द्वारा तोड़फोड़ किए जाने घटनाओं को रोकने के लिए दिशा-निर्देश जारी करेगा। पुलिस हरकत में आई और कुछ लोगों की गिरफ्तारी भी हुई, लेकिन सवाल यह है कि धर्म-आस्था के नाम पर ये उन्माद उठता क्यों है। इसके पीछे कुछ हद तक लचर प्रशासन को भी जिम्मेदार ठहराया जा सकता है। भक्ति के नाम पर ऐसी घटनाओं की पैरवी करने वाले भी जिम्मेदार हैं। उधर, महाराष्ट्र में एटीएस ने वैभव राउत नामक व्यक्ति को गिरफ़्तार किया, जिसके पास से विस्फोटक बरामद हुआ। वह कथित रूप से दक्षिणपंथी संगठन सनातन संस्था का समर्थक है। यह बात भी सामने आई है कि राज्य के करीब पांच जिलों में विस्फोट करने की तैयारी थी। इस तरह की घटनाओं से संकेत मिलता है कि समाज में ऐसे लोगों की संख्या बढ़ी है, जो आस्था के नाम पर अराजकता फैला रहे हैं। शासन-प्रशासन को ऐसे मामलों से कड़ाई से निपटना चाहिए।
संरक्षण या भक्षण गृह!!
बिहार, उत्तर प्रदेश से लेकर मध्य प्रदेश तक के बालिका संरक्षण गृह कठघरे में खड़े हैं और शायद कई और सच्चाई सामने आने तक लुके-छिपे चल रहे हैं। बालिकाओं-महिलाओं को संरक्षण देने के नाम पर उनके मानसिक-शारीरिक भक्षण का यह खेल शासन-प्रशासन ने नाक के नीचे चलता आ रहा है और स्थितियां कहती हैं आगे भी जारी रहेगा। मुजफ्फरपुर मामले में फिलहाल मुख्यमंत्री शर्मिंदा हुए, फिर मंत्री महोदया को कुर्सी गंवानी पड़ी। पर जाते-जाते मंजू वर्मा कई सवाल पीछे छोड़ गई जैसे ब्रजेश ठाकुर की और किन लोगों से बात होती थी, किसी और को बचाने के लिए मेरे पति को फंसाया जा रहा है...। देवरिया में भी गिरिजा त्रिपाठी की रसूकदारों से जान-पहचान, कार में लड़कियों को ले जाने की कथित जानकारी सब इसी ओर इशारा करते हैं कि ऐसे मामलों में शासन-प्रशासन की भूमिका पूरी तरह पाक-साफ नहीं होता।
बात यह भी है कि ऐसे संरक्षण गृहों को सरकार मदद के नाम पर लाखों रुपए बांटती है, लेकिन उसकी स्थिति की जानकारी रखना जरूरी नहीं समझती। मई 2017 में महाबलीपुरम (तमिलनाडु) में अनाथालय में बच्चों के साथ शोषण के मामले सामने आने के बाद सर्वोच्च न्यायालय ने यह पाया कि भारत में बच्चों के संरक्षण और देखरेख के लिए ढेर सारे संस्थान, केंद्र और गृह हैं, लेकिन उनमें से ज्यादातर पंजीकृत ही नहीं है। उसके बाद अदालत ने कहा कि ऐसी सभी संस्थाओं का पंजीकरण हो, उनकी निगरानी और सोशल ऑडिट की ठोस व्यवस्था बने। राष्ट्रीय बाल अधिकार संरक्षण आयोग को सोशल ऑडिट की प्रक्रिया संचालित करने की जिम्मेदारी दी गई। इसके बाद भी कई राज्यों ने बाल गृहों और संस्थाओं ने सोशल ऑडिट कराने में कोई रुचि नहीं दिखाई। तब अदालत ने कहा कि इसका मतलब है कि यह मामला संगीन है और कुछ न कुछ छिपाया जा रहा है। मुजफ्फरपुर का मामला सामने आने के बाद महिला एवं बाल विकास मंत्रालय के द्वारा दिए गए आंकड़ों के मुताबिक भारत में कुल 8,631 बाल देखरेख संस्थाएं काम कर रही हैं। इनमें से 1,522 संस्थाएं निर्धारित कानून के तहत पंजीकृत ही नहीं हैं, यानी वहां चल रही गतिविधियों के बारे में कुछ खास अता-पता नहीं है। ऐसे में, अभी से यह कह पाना मुश्किल है कि कितने ऐसे नर्क हैं, जहां बच्चियों-महिलाओं के साथ संरक्षण के नाम पर नर्क भुगतना पड़ रहा है।
राजीव गांधी हत्याकांड: दोषियों की माफी पर केंद्र सहमत नहीँ
तमिलनाडु सरकार के राजीव गांधी के हत्यारों की रिहाई के फैसले पर शीर्ष अदालत ने केंद्र सरकार से जवाब मांगा था। इस पर केंद्र ने कहा कि वह राजीव गांधी हत्याकांड के सात दोषियों को रिहा करने के तमिलनाडु सरकार के प्रस्ताव का समर्थन नहीं करती है, क्योंकि इन मुजरिमों की सजा की माफी से ‘खतरनाक परंपरा’ शुरू होगी। मंत्रालय ने कहा कि निचली अदालत ने दोषियों को मौत की सजा देने के बारे में ‘ठोस कारण’ दिये हैं। उच्चतम न्यायालय ने भी इस हत्याकांड को देश में हुए अपराधों में सबसे घृणित कृत्य करार दिया था। मंत्रालय ने कहा कि चार विदेशियों, जिन्होंने तीन भारतीयों की मिलीभगत से देश के पूर्व प्रधानमंत्री और 15 अन्य की नृशंस हत्या की थी, इनको रिहा करने से बहुत ही खतरनाक परपंरा स्थापित होगी और भविष्य में ऐसे ही अन्य अपराधों के लिये इसके गंभीरतम अंतरराष्ट्रीय नतीजे हो सकते हैं। जस्टिस रंजन गोगोई, जस्टिस नवीन सिन्हा और जस्टिस केएम जोसेफ की तीन सदस्यीय खंडपीठ ने गृह मंत्रालय द्वारा इस संबंध में दायर दस्तावेज रिकार्ड पर लेने के बाद मामले की सुनवाई स्थगित कर दी।
अंततः गुलजार की पंक्ति
“कुछ और भी हो गया नुमायाँ मैं अपना लिक्खा मिटा रहा था,
उसी का ईमां बदल गया है कभी जो मेरा खुदा रहा था।”
■ सोनी सिंह


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