संसार की व्यर्थ वस्तुओं को संग्रहित करने में मनुष्य खुद का व्यक्तित्व, खुद की आत्मा खो देता है। सिकंदर ने जाते-जाते दुनिया को एक बहुत बढ़िया सीख देने का प्रयास किया...
सिकंदर मरा, तो जिस राजधानी में उसकी अरथी निकली, हजारों-लाखों लोग उसे देखने इकट्ठे हुए थे। लेकिन हर आदमी एक ही सवाल पूछने लगा। सिकंदर के दोनों हाथ अरथी के बाहर लटके हुए थे। ऐसा तो कभी भी नहीं हुआ था। किसी के हाथ अरथी के बाहर लटके नहीं देखे गए थे। लोग पूछने लगे, कोई भूल हो गई है? लेकिन किसी भिखमंगे की अरथी होती तो, भूल भी हो सकती थी। सिकंदर की अरथी थी। बड़े-बड़े सम्राट कंधा दे रहे थे। ये हाथ क्यों लटके हुए हैं बाहर? फिर धीरे-धीरे लोगों को पता चला, सिकंदर ने खुद ही चाहा था कि मेरे हाथ बाहर लटके रहने देना।
मित्रों ने पूछा था कि यह क्या पागलपन है? हाथ बाहर कभी किसी के लटके देखे नहीं गए। किसलिए चाहते हो कि हाथ बाहर लटके रहें? तो सिकंदर ने कहा था, मैं चाहता हूं कि लोग देख लें कि मैं भी खाली हाथ जा रहा हूं, मेरे हाथ भी भरे हुए नहीं हैं।
जिंदगी भर दौड़ कर हाथ भरते हैं और फिर पाते हैं कि हाथ खाली रह गए हैं। जिंदगी भर ये हाथ खाली थे। सारी दौड़ व्यर्थ हो जाती है। कुछ मिलता नहीं, सिर्फ मिलता हुआ मालूम पड़ता है। करीब-करीब ऐसे ही जैसे दूर दिखाई पड़ता है कि पृथ्वी जमीन को छू रही है, हम थोड़े आगे बढ़ेंगे, तो वह जगह आ जाएगी जहां जमीन आकाश को छूता है। लेकिन हम जितने आगे बढ़ते हैं, उतना ही वह घेरा भी आगे बढ़ता चला जाता है। हम जिंदगी भर चलते रहें, पूरी पृथ्वी का चक्कर लगा लें, वह जगह नहीं आएगी जहां जमीन आकाश को छूती है। वह सिर्फ छूती हुई दिखाई पड़ती है, वह कहीं छूती नहीं। ठीक ऐसे ही आदमी जिंदगी भर सोचता है: यह मिल जाए, यह मिल जाए, यह मिल जाए। और सब मिल जाएगा एक दिन, ऐसा लगता है आगे, आगे कहीं मिलने की जगह आ जाएगी। दौड़ता है, दौड़ता है, दौड़ता है। आखिर गिर जाता है, मिलने का वक्त नहीं आता, हाथ खाली ही रह जाते हैं।
■ ओशो
सिकंदर मरा, तो जिस राजधानी में उसकी अरथी निकली, हजारों-लाखों लोग उसे देखने इकट्ठे हुए थे। लेकिन हर आदमी एक ही सवाल पूछने लगा। सिकंदर के दोनों हाथ अरथी के बाहर लटके हुए थे। ऐसा तो कभी भी नहीं हुआ था। किसी के हाथ अरथी के बाहर लटके नहीं देखे गए थे। लोग पूछने लगे, कोई भूल हो गई है? लेकिन किसी भिखमंगे की अरथी होती तो, भूल भी हो सकती थी। सिकंदर की अरथी थी। बड़े-बड़े सम्राट कंधा दे रहे थे। ये हाथ क्यों लटके हुए हैं बाहर? फिर धीरे-धीरे लोगों को पता चला, सिकंदर ने खुद ही चाहा था कि मेरे हाथ बाहर लटके रहने देना।
मित्रों ने पूछा था कि यह क्या पागलपन है? हाथ बाहर कभी किसी के लटके देखे नहीं गए। किसलिए चाहते हो कि हाथ बाहर लटके रहें? तो सिकंदर ने कहा था, मैं चाहता हूं कि लोग देख लें कि मैं भी खाली हाथ जा रहा हूं, मेरे हाथ भी भरे हुए नहीं हैं।
जिंदगी भर दौड़ कर हाथ भरते हैं और फिर पाते हैं कि हाथ खाली रह गए हैं। जिंदगी भर ये हाथ खाली थे। सारी दौड़ व्यर्थ हो जाती है। कुछ मिलता नहीं, सिर्फ मिलता हुआ मालूम पड़ता है। करीब-करीब ऐसे ही जैसे दूर दिखाई पड़ता है कि पृथ्वी जमीन को छू रही है, हम थोड़े आगे बढ़ेंगे, तो वह जगह आ जाएगी जहां जमीन आकाश को छूता है। लेकिन हम जितने आगे बढ़ते हैं, उतना ही वह घेरा भी आगे बढ़ता चला जाता है। हम जिंदगी भर चलते रहें, पूरी पृथ्वी का चक्कर लगा लें, वह जगह नहीं आएगी जहां जमीन आकाश को छूती है। वह सिर्फ छूती हुई दिखाई पड़ती है, वह कहीं छूती नहीं। ठीक ऐसे ही आदमी जिंदगी भर सोचता है: यह मिल जाए, यह मिल जाए, यह मिल जाए। और सब मिल जाएगा एक दिन, ऐसा लगता है आगे, आगे कहीं मिलने की जगह आ जाएगी। दौड़ता है, दौड़ता है, दौड़ता है। आखिर गिर जाता है, मिलने का वक्त नहीं आता, हाथ खाली ही रह जाते हैं।
■ ओशो



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