रिश्तों की पाठशाला: “ससुराल” अच्छा लगता है तेरा साथ - Kashi Patrika

रिश्तों की पाठशाला: “ससुराल” अच्छा लगता है तेरा साथ


ससुराल से बहू का नाता कुछ खट्टा-कुछ मीठा सा होता है। मायके की गलियों में बुने बचपन के सपनों को आँखों में लिए वह ससुराल की दहलीज पर कदम रखती है, तो मन बहुत सी आशंकाओं से भरा होता है। कुछ ही कदम पीछे मायका छूट रहा होता है, जहां अब तक उसके अपने थे। धीरे-धीरे यह उसका अपना घर हो जाता है। वह स्त्री ही होती है, जो दोनों घरों को सहेजकर रखती है, उसकी नजर से ससुराल को देखने की कोशिश करती यह कविता-

*सुन ससुराल*----------
अच्छा लगता है तेरा साथ
अब तक जो किया सफर
थामकर तेरा हाथ
पहला पाँव जब धरा था
तेरे नाम से ही मन डरा था
बिन आवाज थालियों को उठाया था
साड़ी में एक एक कदम डगमगाया था
रस्मों रिवाजों को तहेदिल से निभाया था
खनकती चुड़ियों से कड़छी को चलाया था
डरते डरते पहली बार खाना बनाया था
बस ऐसे ही मैंने
सबको अपना बनाया था

*सुन ससुराल*-------
तुम साक्षी हो मेरे एक एक पल के
वो पिया मिलन
वो पहली बार जी मिचलाना
खट्टी चीजो पर मन ललचाना
वो पहली बार
अपने अंदर जीवन महसूस करना
कपड़े सुखाने आँगन में डोलना
पापड़ का कच्चा कच्चा सा सेंकना
गोल रोटी के लिये जद्दोजहद करना
दाल का तड़का, दूध का उफनना
कटी हुई भिंडी को धोना
पहली बार हलवे का बनाना
पहली दिवाली पर दुल्हन सी सजना
तीज व करवा चौथ पर मनुहार
करवाना
हाँ ससुराल ने दिये ये अनमोल पल
वधु बन आयी थी
तुम्हीं थे जिसने सर आँखों बैठाया
बड़े स्नेह से अपनापन जताया
यही आकर मैंने सब सीखा और जाना
कभी किसे मनाया तो कभी किसे सताया
एक ही समय में
मैंने कितने किरदारों को निभाया
खुद को खो खोकर मैंने खुद को पाया

*सुन ससुराल*---------
मायके के आगे भले ही
हमेशा उपेक्षित रहे तुम
लेकिन
फिर भी मेरे अपने रहे तुम
मायके में भी मेरा सम्मान रहे तुम
मेरे बच्चों की गुंजे जहाँ किलकारियाँ
वो आँगन रहे तुम
मेरे हर सुख दुख के साक्षी रहे तुम

*सुन ससुराल*--------
पीहर की गलियाँ याद आती हैं
गीत बचपन के गुनगुनाती हैं
लेकिन
मायके में भी तेरी बात सुहाती हैं
तेरा तो ना कोई सानी हैं
तू ही तो मेरे उतार चढ़ाव की कहानी हैं
कितने सबक़ तुने सीखाये
पाठशाला ये कितनी पुरानी हैं

*सुन ससुराल*--------
अब तू ससुराल नहीं मेरा घर है।
■ (इलस्ट्रेशन साभार)

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